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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
31. आत्म - निरीक्षण
प्रायः व्यक्ति दूसरों के दोषों का उल्लेख अधिक करता है । कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जिन्हें किसी में भी अच्छाई दिखाई नहीं देती। इसके विपरीत कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते है जिन्हें किसी भी व्यक्ति में बुराई दिखाई नहीं देती । जैसा कि किसी कविने कहा है -
बुरा जो देखन में चला, बुरा न मिलिया कोय | जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय ||
वास्तव में बुरा तो वही व्यक्ति है जो अन्य व्यक्तियों में बुराई देखता है । अन्य व्यक्तियों की निन्दा करते समय अथवा उनकी बुराई का उल्लेख करते समय व्यक्ति को चाहिये कि वह अपने स्वयं के हृदय में भी झांक कर देख ले कि वह स्वयं क्या है? सत्य तो यह है कि यदि देखना ही हो तो दूसरों के गुण देखो और अपने दोष देखो । दूसरों के दुर्गुणों से तो हम अपनी आत्मा को ही कलुषित करते हैं, जैसा कि कहा गया है
क्वचित कवायैः क्वचन प्रमादः कदाग्रहैः क्वापि च मत्सरारी । आत्मानमात्मन् । कलुषो कटोषि विभेषिधि जो नरकादधर्मा ||
इसका तात्पर्य यह है कि तू अपनी आत्मा को कभी कषायों से, कभी प्रमाद से, कभी कदाग्रह से और मात्सर्य से कलुषित कर रहा है । तुझे धिक्कार है कि तू नरक से नहीं डरता ।
उत्तराध्ययन सूत्र में उल्लेखानुसार आलोचना करने से मोक्षमार्ग में विघ्न डालनेवाले और अनंत संसार की वृद्धि करने वाले माया - मिथ्यात्व तथा निदान रूप तीन शल्यों को हृदय से निकाल देता है और इस कारण उसका हृदय सरल बन जाता है । जब हृदय सरल बन जाता है तो कपट नष्ट हो जाता है। कपट नष्ट हो जाने से वह जीव सभी वेद और नपुंसक वेद को नहीं बांधता है । यदि इन दोनों वेदों का बंध हो चुका हो तो उसकी निर्जरा कर देता है ।
एक विदेशी विद्वान का कथन है कि अपने दोषों और पापों को स्वीकार करो, प्रकट करो, इससे तुम्हें प्रकाश की प्राप्ति होगी ।
अपने अन्तर में झांकते अर्थात आत्म निरीक्षण के संदर्भ में किसी हिन्दी कवि ने कहा है -
मत रूप निहारो दर्पण में, दर्पण गन्दा हो जायेगा । निज रूप निहारो अन्तर में, आत्मा उज्ज्वल हो जावेगा ||
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कहने का तात्पर्य यह है कि आत्म निरीक्षण करने से आत्मा उज्ज्वल होता है । कर्म मलों का विनाश होता है । इसलिये बन्धुओ ! आप सदैव आत्म निरीक्षण की प्रवृत्ति बनाये रखें। यदि देखना ही चाहे तो दूसरों के गुणों को देखें उनके दोषों की ओर दृष्टिपात न करें । आत्म निरीक्षण से और भी अनेक लाभ हैं । आप तो यह प्रयोग करके देखें स्वयं ही अनुभव कर लेंगे ।
32. माताओं से
माता को प्रथम शिक्षिका कहा गया है । माता ही अपनी संतान को परिजनों, मित्रों और समाज से परिचित कराती है। माता ही अपनी संतान को उठना-बैठना, चलना-फिरना और बोलना सिखाती है। माता ही अपनी संतान को संस्कार देती है । यदि माता शिक्षित और सुसंस्कारित हो तो संतान भी महान बन जाती है। माता जीजाबाई का उदाहरण हमारे सामने हैं। उन्होंने अपने पुत्र शिवाजी को महान बनाया । यह तथ्य आज किसी से छिपा हुआ नहीं है । माता चाहे तो अपने पुत्र-पुत्रियों का भविष्य उज्ज्वल बना सकती है और चाहे तो उन्हें पतन के गर्त के ढकेल सकती है। अपनी संतान का भविष्य उज्ज्वल बनाने के लिये स्वयं माता का पढ़ा लिखा और
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