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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था
आज के युवकों के बारे में यह भी कहा जाता है कि उन्हें धर्म के नाम से चिढ़ है । परन्तु हमें ऐसा नहीं लगता । यदि ऐसा होता तो विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों में आज जो भागीदारी होती है, वह नहीं होती । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि धार्मिक ममालों में युवकों की भावना को समझने में हम कहीं न कहीं कोई भूल कर रहे हैं । हमारे विचार से युवक अंध भक्ति को स्वीकार नहीं करता है । वह तथ्यान्वेषी दृष्टिकोण अपनाता है । वह धार्मिक बातों को भी अन्य बातों की भांति अर्थपूर्ण दृष्टि से देखता है । इसलिये युवकों को धर्म के मामले में आधुनिक दृष्टि से समझाने की आवश्यकता है । उन्हें यह समझाने की आवश्यकता है कि धर्म का क्षेत्र श्रद्धा और भक्ति का क्षेत्र है । श्रद्धा-भक्ति में तर्क को कोई स्थान नहीं है ।
युवकों से हमारा कहना है कि अनुशासनहीनता उच्छंखलता, अक्खड़पन, झूठ, फरेब, हड़ताल आदि से आपका कल्याण होने वाला नहीं है । नकल करके परीक्षा उत्तीर्ण करने से आपके ज्ञान में वृद्धि होने वाली नहीं है । आप अपने अन्दर रही हुई शक्तियों का सदुपयोग करें, विनय गुण अपना कर गुण के ग्राहक बनें, अच्छी उच्चशिक्षा प्राप्तकर अपने जीवन का विकास करें और इन सब में धर्म को नहीं भूले । कारण कि सब कामों में कर्म बंध होता है । केवल धर्माराधना ही आपके मानव जीवन को सार्थक करने में सहायक है । अस्तु स्वयं सोचे विचारे अपने लक्ष्य निर्धारित करें और उसके अनुरूप अपना आचरण रखें।
श्रद्धेय आचार्यश्री द्वारा रचित कथा साहित्य
ईमानदारी एक गाँव में एक सन्त ग्रामवासियों को उपदेश दे रहे थे । एक सुनार भी उपदेश सुन रहा था । सन्त ने उपदेश दिया कि मनुष्य को कम से कम तीन बातों से अवश्य बचना चाहिये । ये तीन बाते हैं - 1. झूठ न बोलना 2. चोरी न करना और 3. पर स्त्री को न देखना । स्वर्णकार को सन्त का उपदेश बहुत अच्छा लगा । उसने सोचा बातें तीनों ही अच्छी है और मुझे तीनों का पालन करना चाहिये । उसने प्रतिज्ञा कर ली ।
अब वह दुकान पर बैठ कर अपना धंध करता तो अपने द्वारा ली गई प्रतिज्ञाओं का बराबर ध्यान रखता । किन्तु उसके सामने एक कठिनाई आने लगी । दूसरे स्वर्णकार बनवाई कम लेते और सोने-चाँदी में से कुछ भाग चुरा कर पूर्ति कर लेते थे, पर प्रतिज्ञाबद्ध स्वर्णकार चोरी नहीं कर सकता था । इसलिये वह बनवाई मजदूरी ज्यादा लेने लगा। परिणाम यह हुआ कि उसके पास कोई आभूषण बनवाने नहीं आता । अतः गाँव छोड़कर नगर में आ बसा जो गाँव से ज्यादा दूर नहीं था।
स्वर्णकार अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ था । कठिनाइयों को झेलते हुये भी उसने प्रतिज्ञा को तोड़ने का विचार नहीं किया। यही नहीं एक दिन उसने अपने लड़के को भी समझा बुझा कर तीनों प्रतिज्ञाएं दिला दी । लड़के ने भी प्रसन्नतापूर्वक प्रतिज्ञाएँ ग्रहण करली | माता-पिता दोनों का देहान्त हो गया ।
लड़का अनाथ हो गया, पर अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ था । स्वर्णकारी का धंधा नहीं चला तो उसने बर्तन-थाली-लोटा आदि बेचना शुरू किया । वह बालिग था । किन्तु उसे बुरी तरह गरीबी ने सताया और वह फटे-पुराने कपड़े पहन कर जीवन व्यतीत करने लगा | उसकी दयनीय स्थिति देखकर दूसरे स्वर्णकार कहने लगे - भाई ! प्रतिज्ञाओं का पालन अवश्य करो, मगर दुकानदारी तो दुकानदारी के तरीके से ही करना चाहिये, पर लड़का पक्का था । उसने उत्तर दिया - “पर चोरी नहीं करूँगा । मानव जन्म बार-बार नहीं मिलता। मैं तो प्रतिज्ञाओं पर दृढ़ रहूँगा । इस प्रकार गरीबी के दुःख देखते-देखते बहुत दिन व्यतीत हो गये ।
उस नगर का राजा एक रात गहरी नींद में सो रहा था कि अचानक पिछली रात में उसकी नींद खुल गई । राजा ने विचार किया- मेरी रानियाँ अच्छी है, राजकुमार भी चरित्रवान, आज्ञा का पालन कर्ता है, परिवार के अन्य सदस्य तथा शासकीय व्यवस्था भी संतोषजनक हैं । यह सब बातें तो ठीक हैं, परन्तु मुझे यह नहीं मालूम हैं कि खजाने में कितना धन है ? उसे देख लेना चाहिये ।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्रज्योति
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हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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