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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
अंधे को अंधा कहोगे तो बात सत्य होते हुए भी वह बुरा मान जायेगा । इसके विपरीत यदि आप उसे सूरदासजी कह देंगे तो वह बुरा नहीं मानेगा । मूर्ख को मूर्ख मत कहो । उससे कहो कि वह अपनी बुद्धि से बात समझने का प्रयास करे कहने का तात्पर्य यह है कि किसी से भी बोलते समय, बातचीत करते समय सदैव वाणी विवेक का ध्यान रखना चाहिये। यदि वाणी विवेक का ध्यान नहीं रखा तो जीव्हा तो बोलकर रह जावेगी किंतु बेचारे सिर को जूते खाने पड़ेंगे।
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यह वाणी विवेक ही है जो बोलने वालेका मान अथवा अपमान करवाती है । वाणी हमारे व्यवहार का प्रमुख अंग है। वाणी के माध्यम से व्यक्ति के व्यवहार को सहज ही पहचाना जा सकता है । मधुर वाणी व्यक्ति को सर्वजन वल्लभ बनाने के साथ ही उसकी कुलीनता एवं शालीनता को व्यक्त करती है। दूसरी बात यह कि मधुर वचन बोलने वाले व्यक्ति का मन भी अत्यन्त कोमल होता है, दया और करुणा से ओतप्रोत होता है । उसकी वाणी ही नहीं दृष्टि और कार्यों में भी मधुरता रहती है
।
मीठे वचन शोक संतुष्ट व्यक्ति को भी धैर्य प्रदान करते है । रोगी व्यक्ति के लिये मीठे वचन औषधि का काम करते हैं। मीठे - मधुर वचनों के सम्बन्ध में कहा गया है।
ऐसी बानी बोलिये मन का आपा खोय । औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय ||
कौआ और कोयल दोनों लगभग एक समान होते हैं किंतु कौए की वाणी को कोई पसंद नहीं करता और कोयल को हर व्यक्ति सुनना चाहता है । कहा भी है -
काणा किसका धन हरे, कोयल किसको देत ।
मीठे वचन सुनाय के, जग अपनो कर लेत ||
कहने का तात्पर्य यह है कि आप सदैव बोलते समय मधुर वचनों का प्रयोग करें। कभी भी कटु वचन नहीं बोले । कारण कि तलवार का घाव तो भर जाता है किन्तु शब्द का घाव जीवन भर सताता रहता है । अपनी वाणी का विवेक के साथ उपयोग करने में ही सार्थकता है।
29. सुख-दुख
प्रत्येक मास में दो पक्ष होते हैं - एक शुक्ल पक्ष और दूसरा कृष्ण पक्ष । शुक्ल पक्ष उज्ज्वल होता है और कृष्ण पक्ष अंधकार से भरा हुआ होता है । उसी प्रकार मानव जीवन में भी दो पक्षों का अस्तित्व बना रहता है । एक पक्ष है सुख और दूसरा पक्ष है दुःख सुख मानव जीवन का उज्ज्वल पक्ष है तो दुःख मानव जीवन का अंधकरमय पक्ष है ।
मनुष्य ही नहीं संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है, दुःख कोई नहीं चाहता । इसलिये सुख सबको प्रिय लगता हैं और दुःख सबको प्रतिकूल लगता है । आचारांग सूत्र में कहा गया है -
सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया दुक्ख पडिकूला ।
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इसका तात्पर्य यह है कि सभी प्राणी जीना चाहते हैं सुख सबको प्रिय है और दुःख सबको प्रतिकूल लगता है।
सही बात तो यह है कि मानव मात्र का लक्ष्य सुख है। मनुष्य अपने जीवन में जो कुछ भी करता है, सुख की आकांक्षा से करता है। वह न केवल अपने सुख के लिये प्रयत्नशील बना रहता है, वरन् अपने परिवार के सदस्यों सुख के लिये भी वह दिन-रात एक करता रहता है। मनुष्य सुख के दूसरे पक्ष दुःख की तो कल्पना तक नहीं करता । वह तो सुख की स्थिति में इतना तल्लीन हो जाता है कि धर्माराधना करना तक भूल जाता है ।
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हेमेल ज्योति ज्योति