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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन था
इन आचार्य महाराज की कोई बात गुप्त नहीं रहती । हमेशा, उपाश्रय के आम चौक में या व्याख्यान हॉल में ही इनका स्थायी बैठक का स्थान होता है |विद्युत के उपकरणों से, टेलीफोन से दूर रहते हैं । पंखों विद्युत रोशनी से विहीन स्थान का उपयोग करते हैं । ये सभी बातें इस आधुनिक समय में शिथिलाचार के कारण संभव नहीं होना कुछ अन्य साधुगण बताते हैं। परन्तु एक अत्यंत वृद्ध व असक्त व्यक्ति इनका पालन कर सकता है तो युवा साधु कैसे पालन नहीं कर सकते ।
कहा जाता है कि एक लाइन को मिटाकर, अपनी खुद की लाइन खींचता है वह तुच्छ व्यक्ति होता है जबकि खींची हुई लाइन से लम्बी लाइन बिना पूर्व लाईन को मिटाये खींचे तो वह महान गिना जायेगा व उसकी लाइन बडी गिनी जायेगी श्री हेमेन्द्र सूरिजी ने भी तीर्थों के विकास में चातुर्मास में इसी सिद्धान्त को अपनाया है । प्रतिष्ठाएं तीर्थ विकास धर्मशालाओं के निर्माण वगेरे करवाये तो विशाल हृदयता से सबके लिये खुले रखे हैं । दर्शन, उपयोग आदि हेतु किसी जैन अनुयायी वर्ग हेतु प्रतिबंध नहीं लगाये बल्कि यह निर्देश दिये गये हैं कि कोई गच्छ के साधु संत श्रावक आवे तो सम्मान व वैयावच्च में उनके पद के अनुसार अपने गच्छ के साधु सम बर्तावा किया जावे।
पू. श्री विद्याचन्द्र सूरिजी के स्वर्गवास के बाद या उसके पूर्व कभी श्री हेमेन्द्र सूरिजी ने दीक्षा पर्याय की वरिष्ठता होते हुए, आचार्य पद का दावा नहीं किया न लालायित रहे परन्तु इनकी सरलता ने आचार्य पद रूपी वरमाला स्वतः समाज के आग्रह से उनके गले में पड़ी।
राजनैतिक नेता पद व पदवियों के भूखे होते हैं तभी उनमें विवाद होकर भीषण परिणति होती है परन्तु साधु संतों में भी पद व पदवियों की तरफ आकर्षण हो गया है तभी गच्छों में विवाद होकर विभक्तिकरण होता है। अगर पद त्याग की भावना हो तो संग में फूट नहीं हो सकती । श्री हेमेन्द्रूसरिजी ऐसी लिप्साओं से मुक्त हैं । उन्होंने आचार्य पद ग्रहण करने से मना किया था, परन्तु वरिष्टता एवं परिस्थितयों के अनुसार भावभरा आग्रह सकलसंघ का होने से ही यह पद अंगीकार किया था ।
आचार्य श्री हेमेन्द्रसूरिजी के सान्निध्य में बम्बई से विशाल छरिपालक संघ श्री मोहनखेडा तीर्थ मध्य प्रदेश करीब 5-6 साल पूर्व । आया था आपकी आयु लगभग 75 साल की थी परन्तु सैकड़ों किलोमीटर पद विहार करके भी खुशी का अनुभव करते थे परन्तु आज कुछ क्षमता बाले संत भी लारी या व्हील चेअर पर बैठना अपनी शान समझते हैं । श्री हेमेन्द्रसूरिजी अब बयासी वर्ष के लगभग आयु के होने आये अस्वस्थ भी रहते हैं आज भी पद विहार करते हैं । इनसे प्रेरणा लेनी चाहिये ।
आचार्यदेव की आचार्य पदवी श्री राजेन्द्रसूरि के मुख्य मान्यता वाले नगर आहोर में होने के बाद भीनमाल, बागरा, राजेन्द्रसूरि के क्रियोद्धार स्थल जावरा, मुख्य तीर्थ श्री मोहनखेडा राजगढ़ वगैरह में ऐतिहासिक चौमासे अपार सम्मान सहित हुए परन्तु अभी तक कुछ लोग ऐसे भी शेष हैं जो राग दृष्टि से अथवा किसी सिखाने से इन्हें आचार्य के तौर पर मान्यता देने में संकोच करते हैं ताकि संत के रूप में इनका चारित्र सर्वोत्कृष्ट मानता है । ऐसी दुष्प्रेरणा अगर कोई संत देते हैं तो वह उनके अस्तित्व के लिये घातक है। जबकि श्री हेमेन्द्रसूरिजी ने किसी के पद या अस्तित्व को चेलेंज नहीं किया अपितु ऐसे प्रत्येक संत की उसके पद के अनुसार सम्मान प्रयत्न किया व निर्देश भी दिया । अगर ऐसी प्रकृति प्रत्येक सम्बन्धित व्यक्ति अपनायें तो, विघटन संगठन में परिवर्तित हो सकता है।
अहंकार व पद लोलुप्ता से मुक्त होकर, एवं घृणा का त्याग कर समाज के प्रत्येक व्यक्ति को स्नेह से गले लगाने की भावना, सकल संघ में काया कल्प का काम कर कसती हैं । धक्का देकर आगे बढ़ने की भावना राजनीति से प्रेरित होती है जो स्वयं के सर्वनाश के साथ समाज के संगठन के लिये अकल्याणकारी होता है । ये विचार है आचार्यदेवश्री हेमेन्द्रसूरिजी के ।
अंत में कामना करता हूं कि दादा गुरुदेव ऐसी शक्ति आचार्यदेव को प्रदान करें कि वे सकल संघ में स्नेह की धारा प्रभावित कर इसे संघठित करने की ज्यादे अग्रसर हों ।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्य ज्योति 67 हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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