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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
प्रवचन कणिकाएं
1. जीवन श्रेष्ठ बनाने का उपाय
जब तक हम स्वयं अच्छे नहीं होंगे, तब तक हमें सब कुछ खराब ही लगेगा। इसलिये आवश्यक है कि हम अपनी दृष्टि साफ सुथरी रखें । हर चीज में बुराई खोजने के बजाय अच्छाइयों की तलाश करें तभी हमारे आसपास का वातावरण ठीक होगा।
जब तक हम आपस का वैर भाव एवं भेदभाव समाप्त नहीं करते, तब तक समाज या देश के विकास की कल्पना करना भी व्यर्थ है। आज हमने परस्पर भेद भाव की दिवारें इतनी ऊंची खड़ी कर रखी है कि जब हमें एक देश से दूसरे देश में जाना होता है तो उसके लिये पासपोर्ट और विजा की आवश्यकता होती है, उसके अभाव में हम जा ही नहीं सकते। ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य पर से मनुष्य का विश्वास समाप्त हो गया है।
मनुष्य जाति अपने आपको समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ समझती है और वास्तव में वह श्रेष्ठ है भी किंतु वैर भाव एवं अविश्वास के वातावरण में क्या वह श्रेष्ठ हो सकता है? आप सभी जानते हैं कि आत्मा के रहने पर ही शरीर का अस्तित्व है। आत्मा श्रेष्ठ है, अजर अमर है । उसी प्रकार यदि मनुष्य अपनी श्रेष्ठता बनाये रखना चाहता है तो उसे धर्म का पालन करना होगा । धर्म का पालन करने से ही जीवन श्रेष्ठ बन सकता है । आज तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मनुष्य पशु-पक्षियों से भी गया बीता हो गया है । पशु-पक्षी आपस में सहयोग करते हैं किंतु विवेक सम्पन्न मनुष्य एक दूसरे की टांग खीचने से नहीं चूकता है, उसमें सद्भावना का अभाव है । यदि सब मनुष्य, हम सब एक हो जावें तो दुनिया की कोई शक्ति हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती । अस्तु श्रेष्ठ जीवन के लिए सद्भाव व एकता जो कि धर्म के ही अंग है, का पालन करना अनिवार्य है । धर्म को जीवन का अंग बनाने में ही श्रेष्ठता है, सबका कल्याण है । 2. परहित की सोचें
हम जब भी कोई कार्य करें, पहले उसके विषय में अच्छी प्रकार सोच विचार कर लें । कार्य अच्छा है या बुरा? उसके करने से हानि है अथवा लाभ? कहीं अपने द्वारा किये जा रहे कार्य का दुष्प्रभाव दूसरों पर तो नहीं पड़ेगा? कारण कि एकाएक बिना विचारे जो कार्य किये जाते हैं वे हानि के कारण बन जाते हैं । इसलिये अच्छा यही है कि कार्य करने के पूर्व सभी दृष्टि से उस पर विचार कर लिया जावे । जो मूर्ख होते हैं वे पहले कार्य करते हैं और फिर उस पर विचार करते हैं । एक अच्छा लेखक वही होता है जो पहले अच्छी प्रकार सोच-विचार कर, चिंतन कर लिखता है । ऐसा लेखक उच्च कोटि का विचारक/लेखक होता है ।
जब हम अपने हित की बात करते हैं अथवा सोचते हैं तो उस समय परहित की बात पर भी विचार करना चाहिये, क्योंकि कहा गया है कि परहित सरिस धरम नहीं भाई । उसका लाभ यह होगा कि आपके हृदय में से राग-द्वेष, मोह, माया कम होती जायेगी, स्वार्थ भावना छूटेगी और परमार्थ की भावना का विकास होगा । आपके जीवन में सद्गुणों की बहार आने लग जायेगी। 3. धर्म के स्थायित्व के लिये
आज मनुष्य के जीवन में धर्म की अत्यन्त आवश्यकता है । मनुष्य भौतिकता की चकाचौंध में धर्म से दूर होता जा रहा है । धर्म स्थायी तभी तक रह सकता है, जब तक गृहस्थ और साधु का सम्बन्ध है । यदि इन दोनों का सम्बन्ध विच्छेद हो जाय, समाप्त हो जाय तो समाज में अधर्म का बोलबोला हो जायगा । अतः धर्म के स्थायित्व के लिये साधु-संतों को आश्रय देना चाहिये । आप जानते हैं कि सूर्य केवल दिन में ही प्रकाश दे सकता है और चन्द्रमा केवल रात्रि में प्रकाश दे सकता है । इसके विपरीत साधु-संत अपना ज्ञान रूपी प्रकाश दिन और रात्रि दोनों में ही देते हैं । यही कारण है कि आज देश को साधु-संतों की अत्यन्त आवश्यकता है जो देश-समाज को सही मार्ग दर्शन दे सके ।
हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति
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हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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