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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
10. राग-द्वेष का त्याग करें
मोह के दो पुत्र हैं एक राग और दूसरा द्वेष । जब मनुष्य मोह के वशीभूत हो जाता है तो वह उसके दो पुत्रों के भी वश में हो जाता है । मनुष्य राग वश और द्वेष वश जो भी करता है उसमें वह औचित्य अनौचित्य का ध्यान नहीं रखता, अपने द्वारा किये जा रहे, समस्त कार्यों को वह उचित ही ठहराता है । इस प्रकार वह राग-द्वेष के द्वार कर्म बंध करता चला जाता है । किसी के प्रति राग अथवा द्वेष के कारण मनुष्य के सद्गुणों का भी विनाश हो जाता है । राग-द्वेष धारक व्यक्ति का आचरण भी निन्दनीय हो जाता है । समाज में उसकी प्रतिष्ठा भी समाप्त हो जाती है । अतः यदि समाज में प्रतिष्ठा चाहते हैं, मानव सम्मान चाहते हो तो समता धारणकर राग-द्वेष का त्याग करो। 11. आकुल मत बनो
सूत्रकारों ने आत्मा के दो प्रकार बताये हैं । एक संसारी आत्मा और दूसरी मुक्तात्मा । जिस प्रकार किसी वस्तु को तैयार करने के लिये कच्चे माल की आवश्यकता होती है तभी वस्तु का निर्माण होता है । उसी प्रकार आत्मा को मुक्तात्मा बनाने के लिए संसारी आत्मा है । यही संसारी आत्मा आगे चलकर अपनी साधना के द्वारा मुक्तात्मा बनती है।
आप सभी जानते हैं कि कोई भी व्यक्ति जन्म से साधु नहीं होता । जन्म तो गृहस्थावस्था में ही होता है फिर गृहस्थ से साधु बनता है । यदि गृहस्थों के आचार विचार शुद्ध होंगे तो साधु भी शुद्ध व्यक्ति ही बनेगा । शुद्ध आचार-विचार के लिये व्यक्ति को व्यसनों से बचना होगा, धर्म के नियमों का पालन करना होगा । धर्मपालन में व्रत उपवास भी हैं, ये हमें शक्ति प्रदान करते हैं । यदि धर्म का पालन नहीं करे तो व्यक्ति को हानि ही होगी । धर्म पालन भी अपनी सामर्थ्यानुसार करना चाहिये । अपनी समार्थ्य से अधिक पालन किया तो आकुलता होगी । निराकुल होकर धर्म का पालन करना चाहिये। आकुलता के आ जाने पर धर्म-अधर्म में अन्तर नहीं रह पायेगा । अतः धर्म का पालन करते समय आकुल व्याकुल नहीं बनना चाहिये । उसी में सबका हित है । 12. माता
_भारतीय धर्म दर्शन में नारी को जितना सम्मान दिया गया है, उतना सम्मान अन्य धर्म दर्शनों में नहीं दिया गया है। हमारे यहां तो दीक्षा, जिनवाणी मुक्ति, लक्ष्मी जैसे नाम नारी वाचक है । उसी से नारी के प्रति हमारी सम्मान भावना विदित हो जाती है । फिर तीर्थकर भगवान हो या अन्य, उनकी जन्मदात्री तो नारी ही होती है । मनुष्य ही नहीं देवताओं के द्वारा भी विविध प्रकार से नारी का गुणगान किया गया है । नारी का दूसरा नाम माता है । जो घर में रहती है और अपनी संतान को संस्कारित करती है, विश्व की पहचान देती है | पिता तो घर के बाहर रहकर अपने व्यापार-व्यवसाय में व्यस्त रहता है, उसे अपनी संतान की ओर ध्यान देने का समय ही नहीं मिल पाता है । वह तो माता ही है जो अपने बच्चों को धर्म का बोध कराती है, बच्चों को मन्दिर ले जाकर मंदिर में प्रवेश करने की विधि, दर्शन-विधि, पूजन-विधि आदि सिखाती है। नवकार मंत्र भी माता ही अपने बच्चों को सिखाती है । माता ही बच्चों को घर-परिवार के बड़े-बूढ़ों का आदर सम्मान करना सिखाती हैं । वही बच्चों को सबके साथ उनके सम्बन्ध और सम्बोधन सिखाती है । माता द्वारा जो संस्कार बाल्यकाल में बच्चों में डाले जाते हैं, उनके द्वारा ही बच्चा भविष्य में महापुरुष बनता है । यदि माता बच्चों में संस्कार नहीं डाले और कुसंस्कारों को प्रोत्साहित करे तो वही बालक आगे चलकर, बड़ा होने पर चोर या डाकू बन जाता है । शराबी, जुआरी बन सकता है । कोई भी माता अपने पुत्र को चोर-डाकू, अथवा जुआरी शराबी बनाना नहीं चाहती । माता द्वारा डाले गये संस्कारों के कारण ही देश में आदर्श गर्मपालक नागरिक होते हैं । वर्तमान काल में युवकों में शराब पीने की प्रवृत्ति बढ़ रही हैं । इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है अन्यथा विनाश हो जायेगा । माताओं को चाहिये कि वे सावधान हो जाय और उस ओर अपना ध्यान केन्द्रित करें । कारण कि माता ही अपने बच्चों को सत्यमार्ग का अनुसरण करने के लिये प्रेरित कर सकती है।
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