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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
करते रहे, हिलते-डुलते रहे तो सुई में धागा नहीं पिरोया जा सकता । एकाग्र होने पर ही यह सम्भव है । ठीक यही बात ध्यान के सम्बन्ध में कही जा सकती है । ध्यान करते समय आलम्बन की भी आवश्यकता होती है क्योंकि आलम्बन के बिना ध्यान-धर्म ध्यान सम्भव नहीं होता । जिस प्रकार मनुष्य को एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के लिए वाहन का आलम्बन लिया जाता है, ठीक उसी प्रकार धर्म-ध्यान के लिये भी आलम्बन अनिवार्य होता है।
ध्यान के सम्बन्ध में दूसरी बात यह कि जब तक पांचों इन्द्रियों से विरक्ति नहीं होती तब तक भी ध्यान सम्भव नहीं है, जो विरक्त है उसके लिये ध्यान सम्भव है । जब तक एक इन्द्रियजन्य विकल्प भी विद्यमान है, तब तक धर्म ध्यान सम्भव नहीं है । धर्म ध्यान करते समय हमें आत्मा का चिंतन करना चाहिये । इन बातों का ध्यान रखने पर ही सच्चा ध्यान - धर्म ध्यान संभव है । 8. संयम की आवश्यकता
मनुष्य को सदैव शुभ चिंतन करना चाहिये और अशुभ चिंतन का त्याग करना चाहिये । प्रतिदिन चिंतन के लिये कुछ समय अवश्य निकालना चाहिये । आजकल प्रायः लोग समयाभाव का बहाना बहुत बनाते हैं । वे अक्सर कहते हैं कि क्या करें - समय ही नहीं मिल पाता है, काम का बोझ बहुत हैं । ऐसे में चिंतन के लिये समय कहां से लावें? आपसे अथवा ऐसे लोगों से पूछा जा सकता है कि खाने-पीने के लिये, मनोरंजन आदि के लिये आपके पास समय है। अपना व्यापार व्यवसाय करने के लिये समय हैं किंतु आत्म-ध्यान करने के लिये समयाभाव है । समय बहुत कीमती है । जो समय निकल गया, वह वापस नहीं मिल सकता । जो समय आपके पास है, वही आपका है । उस हर क्षण का आपको सदुपयोग करना है । अतः समय तो आपको निकालना होगा - ध्यान के लिये - चिंतन के लिये ।
ध्यान के लिये कायोत्सर्ग पहली शर्त है । यह बात स्वीकार की जा सकती है कि कायोत्सर्ग करना कठिन कार्य है किंतु निरन्तर अभ्यास से सम्भव हो सकता है । जब एक कोमल रस्सी के निरन्तर सम्पर्क से पत्थर घिस सकता है तो क्या मनुष्य अभ्यास द्वारा कायोत्सर्ग नहीं कर सकता? अवश्य कर सकता है । उसके लिये अभ्यास, दृढ़ मनोबल और संयम की आवश्यकता है । मनुष्य के जीवन में संयम की आवश्यकता ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार एक गाड़ी के लिये ब्रेक आवश्यक है । मनुष्य के जीवन में संयम के आ जाने से कठिन से कठिन कार्य भी सरलता पूर्वक सम्पन्न हो जाते हैं । 9. युवा वर्ग और धर्म
संसार में दो प्रकार के मार्ग बताये गये हैं । एक है प्रवृत्ति मार्ग और दूसरा है निवृत्ति मार्ग । पहला प्रवृत्ति मार्ग संसार का कारण है । उसका लक्ष्य संसार में फंसते चला जाना है । उसके विपरीत निवृत्ति मार्ग संसार से निवृत्त कराता है । जैन धर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है । आत्म विशुद्धि के लिये निवृत्ति मार्ग अपनाना पड़ता है । यही मार्ग सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय की प्राप्ति करवाने वाला है | निवृत्ति मार्ग शाश्वत है। संसार में अनेक प्रकार के प्रपंच है उन प्रपंचों के मध्य धर्म सम्भव नहीं है । आप संसार में रहिये पर निर्लिप्त रहें और अपना ध्येय संसार से हटाने का प्रयास करते रहिये । ऐसा करने से आप निवृत्ति की ओर अग्रसर होते जायेंगे । जीवन में जब तक धर्म है तब तक शांति है यदि धर्म नहीं है तो आपके पास सभी प्रकार का वैभव होने पर भी शांति नहीं मिलेगी । एक बार आचरण अपवित्र हो गया तो फिर सुधारना सरल नहीं है । व्यसनों में फंस गये तो सुधार सम्भव नहीं है । आज प्रायः यह कहा जा रहा है कि आज का युवक धर्म को नहीं मानता । यह सत्य नहीं है । वास्तव में युवक धर्म को मानते हैं । अपने जीवन में उतारने का प्रयास भी करते हैं किंतु हमने उनके सामने धर्म का सही स्वरूप नहीं रखा है | आज का युवक अंध श्रद्धा नहीं रखता । वह व्यावहारिकता की कसौटी पर कस कर प्रत्येक वस्तु को अपनाता है । यही बात धर्म के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। आज का युवक आडम्बर पसंद नहीं करता । सही बात तो यह है कि जब हमने अपना आचरण ही अपवित्र बना लिया है तो युवकों को पवित्र आचरण की शिक्षा किस मुंह से दें? यदि आज के युवकों के हृदय में धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं होती तो आज जितने युवक सेवा धर्म करते दिखाई दे रहे हैं, वे दिखाई नहीं देते । अस्तु कहा जा सकता है कि आज का युवक धर्म के प्रति अधिक श्रद्धावान है ।
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हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्ट ज्योति