________________
श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
विशाल सांस्कृतिक संस्था -
राष्ट्रीय चेतना के प्रहरी, मानवता के मसीहा त्रिस्तुतिक समाज के वर्तमानाचार्यदेव हेमेन्द्र सूरीश्वरजी एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक विशाल सांस्कृतिक संस्था है । उनका ओजस्वी तेजस्वी व्यक्तित्व एक गौरवपूर्ण प्रतिष्ठान है, उनकी पदयात्राएं सिर्फ एक महान मानवीय आंदोलन ही नहीं सामाजिकता का सर्वश्रेष्ठ अभियान है । श्वेताम्बरधारी इस महामानव का उठा हुआ हाथ किसी के लिये समस्त रोग-शोक, दुःख-दारुण्य, ताप-संताप का निवारक है तो किसी के लिए सदाचार और सद्ज्ञान का प्रक्षेपक । नैतिक उत्थान के देवदूत गुरु हेमेन्द्र के बाजु उठते हैं। दूसरों को भलाई के लिए, उनकी वाणी मूर्तिमान होती है तो “वसुधैव कुटम्बम्" की भावना चरितार्थ करने के लिए उनके कदम उठते हैं दूसरों के कल्याण के लिए । पारस पुरुष सूरीश्वर के मस्तिष्क में प्रतिपल मानव कल्याण का चिंतन होता है । अखिल मानवता के प्रति भेद रहित न्योछावर हो जाना ही उनका ध्येय है । उनका जीवन सात्विक आचार-विचार के प्रचार-प्रसार और अहर्निश परोपकार के यज्ञ का अखण्ड सत्र रहा है । चंदन की भांति स्वयं को पिसकर दूसरों को सुगंध देना उनका स्वभाव है । समाज में मैत्री समता शांति प्रेम स्थापना करने के लिए किये हुआ अहर्निष प्रयत्नों से वे आज विश्वसंतों के पंक्ति में गिने जाते हैं ।
"इनहाथों ने आकाश को झुकाया है, इन स्रोतो ने हर प्यास को बुझाया है |
असंभव पर भी उकेर दिया है संभव को, अंधेरे में भी प्रकाश को फैलाया है " निर्लोभ एवं निर्वेर की जीती जागती मिसाल :
स्वभाव में मृदता, विनम्रता जब घुलते हैं तो मनुष्य का अस्तित्व मोहक बन जाता है । अध्यात्ममार्ग के भाव सृष्टा हेमेन्द्रसूरिजी के सरल और हंसमुख स्वभाव के साथ उनके व्यक्तित्व में सौम्यता, शीतलता के आकर्षण मिश्रण ने उन्हें सर्वत्र समान लोकप्रिय बनाया है । अजातशत्रु सूरिजी के जीवन और विचार दोनों में गहरी सादगी है और इसी सादगी में वे श्रेष्ठता की झलक देते हैं । प्रवंचनाओं से बचे रहने की बुद्धि और किसी को भी कष्ट नहीं देने की वृत्ति से वे अपनी साधरणता में भी असाधरण महसूस होते हैं । वे अपने नाम के आगे कोई विशेषण या पद नहीं चाहते । वे आलोचना से उत्तेजित नहीं होते । सहिष्णुता उनके लिए सहज है । इसलिये उद्विग्नता भी नहीं है । न दिखावा न छलावा, न पक्ष न विपक्ष, न प्रदर्शन न दर्शन, न सम्मान न अपमान, न पुरस्कार न तिरस्कार, न अनुरोध न विरोध युगवन्दनीय इस संत का मानस शिशु-सा कोमल, निर्मल, अबोध है । उनकी चितभूमि आसक्तियों से / लिप्साओं से मलिन नहीं बल्कि व्यवस्थित है, नियमित है, संतुलित्त है । वे त्याग और समर्पण निष्कामना और निश्चलता के प्रतीक है । साधना और संयम उनके जीवन के महत्वपूर्ण सूत्र है । वे इतने अप्रमत है कि शासन संचालन करते हुए भी स्वयं से ही जुड़े रहते हैं ।
आत्मीयता के सागर, समभाव के साधक, चारित्र चूड़ामणि इस युगप्रधान आचार्यश्री के कुशल अनुशासन में धर्मसंघ का बहुमुखी विकास हो, त्रिस्तुतिक संघ ज्योतिर्मय बने । सूरीश्वर की प्रज्ञारश्मियां जन-जन के जीवन पथ के प्रकाशित करें । श्रीमद् विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. दिर्घायु हो, चिरायु हो, निरामय हो यही कामना ।
"मौन हो गये ग्रंथ जहां पर तमने दी फिर वाणी । गूंजेगी वही दिग्-दिगन्त में बनकर के कल्याणी ||
सेवा और समर्पण कोई सीखे पास तुम्हारे - कोटि कोटि वंदन ! अभिनंदन ! ओ जग के उजियारे" ||
हेमेन्द ज्योति* हेमेन्त ज्योति
75
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
For