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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
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संसार असार है । ये समझने के बाद वे गुरुदेव श्री हर्षविजयजी की निश्रा में कुछ समय रहकर आपने धार्मिक अध्ययन प्राप्त किया व धार्मिक क्रिया व धार्मिक अध्ययन का आपको काफी ज्ञान हुआ । तब गुरुदेव ने आपको करीब 23 वर्ष की उम्र में श्री भीनमाल नगरी में बड़े धूमधाम से दीक्षा प्रदान की । दीक्षा लेकर आप गुरुदेव श्री हर्षविजयजी के साथ कई साल रहे । अनेक स्थानों पर आपने विहार करके चौमासे किये व धर्म का प्रचार किया। आप गुरुदेव श्री हर्षविजयजी के साथ व अचार्य श्री यतीन्द्र सूरीश्वरजी के साथ कई वर्षों तक रहे व आचार्यश्री की बहुत सेवा की । आचार्य श्री विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी की निश्रा में कई वर्षों तक रहे व आपने आचार्यश्री की भी बहुत सेवा की । आप अपने गुरुदेव श्री हर्षविजयजी के साथ कई वर्षों तक रहे व उनके वृद्धावस्था में भी आपने अपने गुरुदेव की बहुत सेवा की और उनके आशीर्वाद से ही आप आज राष्ट्रसंत शिरोमणि एवं आचार्य पद से सुशोभित हुए हैं । ये सभी गुरु सेवा एवं गुरु आशीर्वाद का ही परिणाम हैं ।
आपका आचार्य पद आहोर नगर में बड़ी धूमधाम से हुआ। आचार्य पद पाने के बाद आपने अनेक जगह चौमासे किये व जैन जाति में नाम कमाया व आपने जगह जगह घूमकर धर्म का प्रचार किया व गुरु गच्छ की गरिमा बढ़ाकर त्रिस्तुतिक मत का प्रचार किया व राजेन्द्र सूरीश्वरजी के नाम को दीपाया ।
आपने बागरा, भीनमाल, मोहनखेड़ा, राजगढ़, जावरा, राणीबेन्नूर आदि अनेक जगह पर चौमासा करके वहां की जनता को धर्म आराधना की ओर अग्रसर किया । नमस्कार महामंत्र एवं तप त्याग की महिमा बताकर लोगों के जीवन का कल्याण किया । इस समय आपकी उम्र करीब 82 वर्ष की है, मगर इस उम्र में भी आपमें बहुत हिम्मत है । शासन के कामों के लिए किसी की परवाह किये बगैर आप आगे बढ़ने के लिए तैयार रहते हैं । शासन का काम करना ही आप अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य समझते हैं | और अपने शरीर व जीवन की परवाह किये बगैर जिन शासन व गुरुदेव के धार्मिक कार्यों के लिए रात दिन का समय देखे बिना आप शासन के काम करने के लिए तत्पर रहते हैं ।
दक्षिण भारत की ओर विहार करके आना यह एक शासन सेवा का जीता जागता गुरुदेव श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी का एक चमत्कारिक व अनोखा उदाहरण हैं ।
कर्नाटक में हुबली के नजदीक राणीबेन्नूर नामक एक छोटा सा गांव हैं । वहां पर संघ ने गुरु भक्तों ने बहुत ही श्रद्धा पूर्वक बडी भक्ति से परिश्रम करके एक मंदिर आचार्यश्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी की दादावाडी बनाई जो वास्तव में देखने योगय हैं । उसमें दादा गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरिजी का सम्पूर्ण जीवन परिचय हैं । गुरुदेव की मूर्ति भी बहुत ही सुहावनी एवं चामत्कारिक है । यह मंदिर पुरे कांच का बना हुआ है । मंदिर बहुत सुन्दर बनाया है । व कारीगीरी भी बहुत अच्छी की हुई है । यह मंदिर अपने आप में अनोखा है । अनुपम है। अद्भुत है।
इस मंदिर का काम पूर्ण होने के बाद वहां के संघ व गुरुभक्तों व विशेष श्री हुक्मीचंदजी लालचंदजी बागरेचा (सियाणा) वालों ने निश्चय किया कि इस गुरु मंदिर की प्रतिष्ठा गुरुदेव श्री हेमेन्द्र सूरीश्वरजी के कर कमलों से करवाई जाए । उन्होंने गुरुदेव से सम्पर्क साधा व गुरुदेव से विनंती की श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी दादावाडी की प्रतिष्ठा करवाना है । व आपके ही हाथों से करवानी है । तब गुरुदेव सोचने लगे । मैं कभी दक्षिण भारत की तरफ गया नहीं । मेरी उम्र भी हो गई है, वृद्धावस्था है। मेरे शिष्य प्रीतेशचन्द्रविजयजी एवं चन्द्रयशविजयजी भी छोटे हैं । उनकी आने की तो इच्छा थी मगर सोचते थे साथ में कोई बड़ा साधु भी चाहिये । इसलिये उन्होंने राणीबेन्नूर से पधारे संघ एवं गुरुभक्तों को कहां मैं आज आपको पक्का जवाब कुछ नहीं देता हूं । और कहा आगे अवसर देलूँगा।
राणीबेन्नूर से पधारे महानुभाव उस समय तो वापस चले गये । और मन मे विचार करने लगे कि महाराज साहब को सोचने दो । फिर दस दिन के बाद वे लोग वहां के संघ के साथ हुक्मीचंदजी के साथ सब लोग मोहनखेड़ा आये । व अड़ गये और उन्होंने वापस आचार्य श्री से विनंती की कि आप राणीबेन्नूर नहीं पधारे तो हम तो यही बैठे हैं । और हमें प्रतिष्ठा आपके हाथों से ही करवानी हैं ।
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