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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
श्रीमान ज्ञानचन्दजी का सोनेचांदी का व्यापार था। इस परिवार का कपड़े का भी मुख्य व्यवसाय था। कपड़े का व्यवसाय बीजापुर के समीप बागेवाडी (कर्नाटक) में था । इससे हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि श्रीमान् ज्ञानचन्दजी का परिवार आर्थिक दृष्टि से काफी समृद्ध था और परिवार में किसी भी प्रकार का अभाव नहीं था । जाति एवं गोत्र :
श्रीमान ज्ञानचन्दजी की जाति के सम्बन्ध में हम ऊपर उल्लेख कर ही चुके हैं कि वे पोरवाल जाति के थे। उनका गोत्र लाम्ब गोत्र चौहाण है । इससे यह आभासित होता है कि उनकी उत्पत्ति क्षत्रिय कुल से हुई। इस परिवार में उपनाम तराणी भी लगाया जाता है। तराणी की उत्पत्ति का कोई विवरण हमें नहीं मिलता है । इसलिये इस सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है । पोरवाल जाति के जितने भी गोत्र मिलते हैं, उनमें से किसी की भी उत्पत्ति का विवरण नहीं मिलता है किंतु एक बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि पोरवाल जाति की उत्पत्ति ब्राह्मण एवं क्षत्रिय कुलों से हुई है ।
जन्म :
वैसे तो श्रीमान ज्ञानचन्दजी का परिवार भरा पूरा था । उन दिनों अधिक सन्तानों का होना बुरा नहीं माना जाता था वरन गौरव की बात मानी जाती थी । श्रीमान् ज्ञानचन्दजी के दो पत्नियां थी। ज्येष्ठ पत्नी पतिपरायणा और धर्मपरायणा श्रीमती उज्जमदेवी थी । श्रीमती उज्जमदेवी पतिव्रता नारी होने के साथ ही साथ सरल स्वभावी उदार हृदया एवं मिलनसार प्रकृति की भद्र महिला थी। परिवार को एक सूत्र में बांधे रखना उनका प्रमुख ध्येय था।
संयोग से श्रीमती उज्जमदेवी के गर्भ के लक्षण प्रकट हुए । जब यह बात श्रीमान ज्ञानचन्दजी तथा परिवार के अन्य सदस्यों को ज्ञात हुई तो उनके हर्ष की सीमा न रही। श्रीमती उज्जमदेवी सावधानी पूर्वक गर्म का पालन करने लगी । इस अवधि में श्रीमती उज्जमदेवी को विभिन्न वस्तुएं खाने की इच्छा होती, कुछ वस्तुएं तो तत्काल उपलब्ध हों जाती किंतु जो वस्तुएं बागरा जैसे गांव में नहीं मिलती उन्हें प्राप्त करने के लिए श्रीमान ज्ञानचन्दजी को विशेष प्रयास करने होते। कभी कभी श्री उज्जमदेवी का मन भ्रमण करने का भी करता । वह चाहती कि गांव के बाहर खुले में स्वछन्द होकर विचरण करूं। यद्यपि उन दिनों महिलाओं का इस प्रकार विचरण करना विशेष प्रचलन में नहीं था और ऐसा अच्छा भी नहीं माना जाता था किंतु फिर भी श्रीमान ज्ञानचन्दजी अपनी पत्नी की भावना को समझते हुए किसी न किसी प्रकार का कोई उपाय कर भ्रमणार्थ निकल ही पड़ते । श्रीमान ज्ञानचन्दजी अच्छी प्रकार जानते थे कि उनकी पत्नी की ये भावनाएं गर्भस्थ शिशु के कारण उत्पन्न हो रही है ।
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गर्भकाल की अवधि में श्रीमती उज्जमदेवी के हृदय में प्राणिमात्र के लिए दया के भाव उमड़ते थे । वे पशुओं को घास आदि डलवाती पक्षियों के लिए अनाज तो वे स्वयं एक निर्धारित स्थान पर डालती थी। कई बार उनकी इच्छा तीर्थायात्रा की भी होती। समीपस्थ तीर्थ स्थान जालोरगढ़ के दर्शन तो उन्हें सरलता से हो जाते थे । गुरु भगवंतों के प्रवचन श्रवण करने की भावना भी उत्पन्न होती, जिसे पूरा कर दिया जाता। यह तो संयोग ही था कि बागरा में जैन साधु-साध्वियों का आवागमन बना रहता। वर्षावास भी होता ही था । यदि कभी बागरा में किसी साधु-साध्वी का वर्षावास न भी होता तो समीपस्थ ग्राम या नगर में वर्षावास होता, तब उनके प्रवचन पीयूष का पान करना कठिन नहीं होता । कहने का तात्पर्य यह कि गर्भकाल में श्रीमती उज्जमदेवी की प्रत्येक इच्छा की पूर्ति श्रीमान् ज्ञान्चन्दजी द्वारा की गई ।
समय के प्रवाह के साथ गर्भकाल पूर्ण हुआ और माघ कृष्णा चतुर्थी विक्रम संवत 1975 के शुभ दिन श्रीमती उज्जमदेवी की पावन कुक्षि से एक सुकुमार सुकोमल, सलोने सुन्दर पुत्ररत्न का जन्म हुआ । पुत्ररत्न के जन्म से सारे परिवार में असीम हर्ष और आनन्द छा गया । तत्काल वाद्य-यंत्र बज उठे । नारी कंठों से पुत्र जन्म की बधाई के स्वरवाले गीत गूंज उठे। आस-पड़ोस में रहने वाले लोगों ने तथा मित्रों ने श्रीमान ज्ञानचन्दजी को पुत्ररत्न के जन्म की हार्दिक बधाइयां दी । इस अवसर पर श्रीमान ज्ञान्चन्दजी ने हृदय खोलकर मिठाई का वितरण करवाया।
हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति
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