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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
यदि हम पूनमचंद के वैराग्योत्पति के कारण को देखते हैं तो पाते हैं कि उनका वैराग्य ज्ञानगर्भित वैराग्य है। कारण कि उनको जो वैराग्य भाव उत्पन्न हुए हैं, हो रहे हैं, वे ज्ञान के आधार पर हो रहे हैं । अपने ज्ञानचक्षु से अनुभव कर पूनमचंद अपने कदम आगे बढ़ा रहे हैं । किंतु उनका लक्ष्य आसान दिखाई नहीं दे रहा है । कारण परिवार द्वारा उनके मार्ग में विघ्न उत्पन्न किये जा रहे हैं । सबसे प्रमुख बात तो यह है कि जब तक परिवार की, माता-पिता की ओर से दीक्षाव्रत अंगीकार करने की अनुमति नहीं मिल जाती तब तक पूनमचंद संयम मार्ग नहीं अपना सकते । और माता पिता अनुमति देने के लिये तैयार नहीं है । दीक्षा में बाधा :
वैराग्योत्पति के पश्चात दीक्षार्थी शीघ्रातिशीघ्र अपने गुरुदेव के चरणों में संयमव्रत अंगीकार कर समर्पित होना चाहता है, किंतु यह बात कहने में जितनी सरल लगती है, व्यावहारिक रूप में उतनी ही कठिन होती हैं । इसका कारण यह है कि दीक्षाव्रत अंगीकार करने के लिए परिवार की / माता-पिता की अनुमति अनिवार्य होती है । पूनमचंद की भावना तो दीक्षाव्रत अंगीकार करने की प्रबल थी किंतु परिवार की ओर से अनुमति नहीं मिल पा रही थी । इसके विपरीत उनके मार्ग में और भी समस्यायें खड़ी की जा रही थी । कभी तो पैतृक व्यवसाय का उत्तरदायित्व सम्हालने की बात होती कभी अध्ययन पूर्ण करने का बहाना होता । यहां यह बात विचारणीय है कि जब व्यक्ति आत्मकल्याण के मार्ग पर चलने का संकल्प ले लेता है, तो उसे सब कुछ व्यर्थ लगने लगता है । अपार सुख सम्पत्ति का लोभ भी उसे तृणवत लगता है । उसे तो बस केवल एक ही बात सत्य लगती है कि संयममार्ग अपना कर उस अमूल्य मानव भव को सार्थक करना । दीक्षाव्रत की यह भावना यथार्थ के धरातल पर सही होती है । वह संसार पंक में पड़कर अपना जीवन व्यर्थ गवांना नहीं चाहता । इसके विपरीत माता-पिता की अपनी आकांक्षाएं होती है । वे अपनी संतान को लेकर सपने संजोते रहते हैं। जब उनके स्वप्न इस प्रकार अनायास भंग होते दिखाई देते हैं तो वे येनकेन प्रकारेण अपने पुत्र को संयम मार्ग पर चलने से रोकने का प्रयास करते हैं । यद्यपि वे इस तथ्य से भली भांति परिचित रहते हैं कि उनका पुत्र जिस राह पर चलना चाहता है वह मार्ग सही है परम सुख प्रदान करने वाला है किंतु मोह/ममत्व के कारण वे उसे अनुमति नहीं देते हैं ।
दीक्षा के मार्ग में कुछ अन्य बाधायें भी होती हैं जैसे अल्पायु का होना, पागल होना आदि। ये समस्या पूनमचंद के प्रकरण में नहीं थी । वय के दृष्टि से कोई बाधा नहीं थी । अन्य और कोई समस्या नहीं थी । केवल माता-पिता की ओर से अनुमति मिलने की समस्या थी । माता-पिता और पूनमचंद दोनों में एक प्रकार से प्रतियोगिता सी हो गई । माता-पिता अनुमति नहीं देकर पूनमचंद को किसी भी प्रकार से रोक रखना चाहते थे । पूनमचंद हर परिस्थिति में दीक्षाव्रत अंगीकार करने के लिये संकल्पित थे । एक अघोषित संघर्ष की स्थिति थी । जैसा कि पूर्व में संकेत किया जा चुका हैं कि किसी बात पर जितना अधिक प्रतिबंध लगाया जाता है वह उतनी ही शक्ति के साथ सामने आती है प्रचारित होती है । पूनमचंद पर जितने प्रतिबंध लगाये जाते, उन्हें जितने नियंत्रण में रखा जाता उनका वैराग्य भाव और अधिक दृढ़ से दृढ़तर होता जाता। उसमें किसी प्रकार की कमी नहीं होती । यहां यह बात शतप्रतिशत लागू हो रही थी कि अच्छे कार्यों में बाधा उत्पन्न होती ही है ।
बागरा में जैनाचार्यों, मुनिराजों और साध्वियों का आगमन होता ही रहता था । पूनमचंद को जैसे ही सूचना मिलती कि बागरा में मुनिराज अथवा साध्वीवृंद का आगमन हुआ है, वे येनकेन प्रकारेण उनकी सेवा में पहुंच जाते
और दर्शन-वंदन एवं प्रवचन पीयूष का पान कर आनंद विभोर हो जाते । इस अवसर पर पूनमचंद विचारों में खो जाते कि दीक्षाव्रत अंगीकार करने का उनका स्वप्न कब साकार होगा । कभी कभी पूनमचंद को सूचना मिलती की समीपवर्ती गांव में मुनिराज आदि विराजमान है, तो वह किसी न किसी बहाने उस गांव/नगर में पहुंच जाते उन्हें इस बात की चिंता नहीं थी कि उनके इस आचरण के कारण परिवारवाले उनके साथ कैसा व्यवहार करेंगे?
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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