________________
श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
पाषाण पिघले :
एक ओर माता पिता दृढ़ थे तो दूसरी ओर पूनमचंद सुदृढ़ थे । ऐसा लग रहा था कि दोनों में से कोई भी पीछे हटने वाला नहीं है । पूनमचंद संसार त्याग कर श्रमण जीवन अपनाना चाहता है और माता-पिता उसे अपनी मोह ममता में बांध कर संसार में बनाये रखना चाहते हैं | माता-पिता अपने प्रयास में विफल होते दिखाई दे रहे हैं । वे जितना समझाने का प्रयास अपने पुत्र को करते हैं, पुत्र उतना ही विरक्त होता चला जा रहा है । अंततः एक दिन माता-पिता ने इस समस्या पर गहन विचार मंथन किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अब पूनमचंद को और अधिक बांधे रखना कठिन है । उसे दीक्षाव्रत अंगीकार करने की अनुमति दे देनी चाहिये । किंतु अनुमति देने के पूर्व एक बार पुनः उसे समझाने का प्रयास किया जाय । अपने इस निर्णय के परिप्रेक्ष्य में श्रीमान ज्ञानचन्दजी ने अपने पुत्र पूनमचंद को अपने पास बुलाया । उस संयम श्रीमती उज्जमदेवी भी वही थी । कुछ क्षण तक तो कक्ष में मौन का साम्राज्य छाया रहा । फिर मौन को भंग करते हुए श्रीमान ज्ञानचन्दजी ने कहा - "बेटा ! जिस राह पर तुम चलना चाहते हो वह सरल नहीं है । तलवार की धार पर चलना सरल है किंतु समय मार्ग पर चलना सरल नहीं है । तुम अपने निर्णय पर पुनः विचार करो ।"
"पिताश्री! आप जो कुछ कह रहे हैं, मैं उन सब बातों पर विचार कर चुका हूं । मैंने जो भी संकल्प लिया है, अच्छी प्रकार सोच समझकर लिया है । इसके लिये आपको चिंता करने की आवश्यकता नहीं है । मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि मेरे कारण आपको कभी भी शर्मिन्दा नहीं होना पड़ेगा ।" पूनमचंद ने कहा ।
"तुम्हारी बात मान लेता हूं किंतु बेटा ! अभी तुम्हारी आयु ही कितनी है? अभी तुमने संसार में देखा ही क्या है? भोगा ही क्या है ? यदि तुम दीक्षा ही लेना चाहते हो तो कुछ वर्षों बाद ले लेना । हम तुम्हें उस समय अनुमति दे देंगे ।" पिता ने कहा ।
"पिताश्री ! यह संसार दुःखों को बढ़ाने वाला है । मनुष्य जन्म भोग के लिए नहीं योग के लिए है । जो कार्य अभी करना है, उसे भविष्य पर क्यों छोड़ा जाय? आयुष्य का कोई निश्चित समय नहीं है । अगले ही पल क्या होगा? क्या आप बता सकते हैं ? आप तो क्या कोई भी नहीं बता सकता । फिर जब बाद में आप मुझे अनुमति दे सकते हैं तो अभी क्यों नहीं?" पूनमचंद ने दृढ़ता से कहा ।
"बेटा ! मेरा तो ध्यान रख । तेरे जाने के बाद मेरा क्या होगा ?" माता ने बीच में कहा । __ "माताजी ! उस संसार में कोई किसी का ध्यान नहीं रखता है । सब अपने पूर्वकृत कर्मों के अनुसार अपना जीवनयापन करते हैं । इस समय आप जो कुछ कह रही है वह आपकी ममता है । जब तक मैं आपके सामने हूं तब तक ममत्व के कारण आप मुझे अलग नहीं करना चाहेगी । मैं जैसे ही आपसे दूर होकर चला जाऊंगा, वैसे ही आपकी ममता में अन्तर आना शुरू हो जायेगा । फिर समय सबसे बड़ी औषधि है । समय के प्रवाह के साथ आपका ममत्व भाव भी समाप्त हो जायेगा । आपके साथ परिवार में जो रहेंगे उनमें आप मग्न हो जाओगी । संसार के जो नाते-रिश्ते हैं वे सब झूठे हैं । इसलिये मेरी प्रार्थना मान जाइये और मुझे दीक्षाव्रत अंगीकार करने की अनुमति दे दीजिये ।" पूनमचंद ने कहा।
पूनमचंद / अपने पुत्र का उक्त कथन सुनकर माता-पिता दोनों अवाक रह गए । उन्हें कल्पना नहीं थी कि उनके पुत्र के विचारों में इतनी प्रौढ़ता आ गई है । अब उनके सामने अनुमति देने के अतिरिक्त कोई मार्ग शेष नहीं रहा । कुछ क्षण मौन रहा । मन ही मन सभी विचार करते रहे | फिर श्रीमान ज्ञानचन्दजी ने मौनभंग किया और कहा "बेटा ! यदि तुम हमारा कहना नहीं मानते हो । हमारे साथ रहना नहीं चाहते हो । हमें असहाय छोड़ कर जाना चाहते हो तो तुम्हारी इच्छा। हम तुम्हारी राह में बाधा उत्पन्न नहीं करेंगे ।'
"पिताश्री ! इस संसार में सब अकेले आते हैं और अकेले जाते हैं । यहां कोई किसी का सहारा नहीं होता है । यदि होता है तो केवल, एकमात्र धर्म का सहारा होता है । फिर अपने पूर्वकृत कर्मों के आधार पर व्यक्ति को जैसा सुख-दुख मिलना होता है वह हर परिस्थिति में मिलकर रहता है । इसलिये आपने जो कुछ कहा वह सब व्यर्थ है, मुझे संयम मार्ग पर जाने से रोकने का प्रयास मात्र है । आप कृपा कर अनुमति दे दें । यही मेरा निवेदन है ।" पूनमचंद ने कहा ।
हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति
30
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति ।
o
n
Education international
S
anelbe