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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथा
माता पिता पूनमचंद को साधु साध्वियों की संगति से दूर ही रखते । उनका प्रयास यही रहता कि पूनमचंद उनका लाड़ला बेटा किसी भी स्थिति में साधु-साध्वियों के सम्पर्क में नहीं आने पावे । इधर पूनमचंद का शिक्षण चल रहा था और उसकी रूचि धर्म के प्रति विशेष रूप से उत्पन्न हो गई । अब वह धार्मिक कार्यों में अधिक रूचि लेने लगा। उसे सांसारिक कार्यों के प्रति अलगाव सा होने लगा । माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों के मानस पटल पर पड़ोसी द्वारा की गई भविष्यवाणी का गहरा प्रभाव था। इस कारण वे पूनमचंद के अपने प्रतिबंध में रखने का प्रयास करते । यह कटु सत्य है कि जिसे जितना नियंत्रण में रखा जाता है वह उतना ही स्वतंत्र रहने का प्रयास करता है । पूनमचंद को साधु-साध्वियों की संगति से जितना दूर रखने का प्रयास किया गया, उसकी उत्कंठा उतनी ही उनके दर्शन प्रवचन श्रवण की ओर होने लगी । अब तक पूनमचंद लगभग पन्द्रह वर्ष का हो गया था । इस आयु में किशोर बालक काफी कुछ सोचने-समझने लगता है तथा अपने हित अहित के विषय में कुछ निर्णय करने की भी सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है । आचार्यदवेश के उपदेशों का प्रभाव :
जैसा कि हम पहले स्पष्ट कर चुके हैं कि बागरा में जैनाचार्य, मुनिराजों एवं जैन साध्वियों का आवागमन सदैव होता रहता था और यहां जिनवाणी की पावन गंगा सतत् प्रवहमान बनी रहती थी। श्रद्धालु श्रावक-श्राविकायें उनके प्रवचन पीयूष का पान कर अपने आपको धन्य मानते थे । उन्हें धन्य मानना भी चाहिये। कारण कि यहां प्यासों के पास कुआ स्वयं चलकर आता था । अन्यथा प्रायः प्यासा ही कुएं के समीप जाता है ।
इसी अनुक्रम में एक बार आचार्य देवेश श्रीमद विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. अपने शिष्य परिवार सहित बागरा पधारे। उनके बागरा पधारने के साथ ही प्रवचन गंगा प्रवाहित होने लगी और श्रद्धालु उसका रसपान करने लगे । उसे संयोग कहें अथवा होनहार कि एक दिन पूनमचंद ने भी आचार्य भगवंत के प्रवचन का रसास्वादन कर लिया । वैराग्य भाव से ओतप्रोत प्रवचन का पूनमचंद पर गहरा प्रभाव पड़ा । धर्म की ओर रूचि तो पूर्व में ही जागृत हो गई थी । अब जब आचार्य भगवंत का प्रवचन सुना तो पूनमचंद के मस्तिष्क में नाना प्रकार के विचार उत्पन्न होने लगे । कुछ ऐसे भी प्रश्न उत्पन्न होते जिनका समाधान उसके पास नहीं था । परिवार वाले उसकी उस स्थिति को देखकर कुछ चिंतित हुए किंतु वे वास्तविकता को समझ नहीं पाये । पूनमचंद मानव भव की सार्थकता पर भी विचार करने लगा । किशोर पूनमचंद को संतोषजनक समाधान नहीं मिल सका । पुनः प्रवचन श्रवण का अवसर मिला और उसे अपने मनुष्य जन्म को सार्थक करने का मार्ग मिल गया । उसने मन ही मन संकल्प कर लिया कि वह सांसारिक चक्कर में न पड़कर संयमव्रत अंगीकार करेगा। जिस समय पूनमचंद ने आचार्य भगवान के उपदेशों से प्रभावित होकर दीक्षाव्रत अंगीकार करने का संकल्प लिया उस समय उसकी आयु मात्र पन्द्रह वर्ष थी । अर्थात् यह बात वि.सं. 1990 की थी । आचार्य भगवन श्रीमदविजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. को भी पूनमचंदजी की भावना का पता चल गया और उन्होंने भी पूनमचंद को अपना आशीर्वाद प्रदान कर लिया ।
पूनमचंद के मस्तिष्क में वैराग्योत्पति के दृढ भाव उत्पन्न हो गये थे । उसने संयममार्ग पर चलने की अपनी भावना भी परिजनों के समक्ष अभिव्यक्त कर दी थी । उसके द्वारा जैसे ही यह भावना अभिव्यक्त की गई, परिवार में एक प्रकार से विस्फोट सा हो गया । उन्हें पड़ोसी द्वारा की गई भविष्य वाणी का स्मरण भी हो आया । अब माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों ने पूनमचंद पर अपने नियंत्रण और भी सख्त कर दिये । यहां यह उल्लेख करना भी प्रासंगिक ही होगा कि बिना परिवार की अनुमति के पूनमचंद दीक्षा व्रत अंगीकार नहीं कर सकता था । दीक्षा व्रत ग्रहण करने के पूर्व परिवार की अनुमति अनिवार्य होती है । अनुमति भले ही न मिली हो, परिवार की ओर से पूनमचंद के मार्ग में बाधायें उपस्थित की जाता रही हो, किंतु पूनमचंद अपने संकल्प के प्रति दृढ़ था । उसका वैराग्य रंग पक्का था । जब यहां वैराग्य की बात आई है तो प्रसंग वश वैराग्य की उत्पत्ति पर भी विचार करना प्रासंगिक ही होगा ।
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