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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ।
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"ठीक है । हमें कोई आपत्ति नहीं है । तुम संयम मार्ग पर जाना चाहते हो तो जाओ।" पिता ने कहा । माता ने भी अपनी मौन स्वीकृति दे दी ।
माता-पिता से दीक्षाव्रत अंगीकार करने की अनुमति मिल जाने से पूनमचंद भावविभोर हो गया । उसका रोम रोम खिल उठा । अब उसकी मनोकामना पूर्ण हो जायेगी । दीक्षा अर्थ एवं महत्व :
दीक्षा 'दीक्ष' धातु से बना है । जिसका अर्थ है किसी धर्म-संस्कारके लिए अपने आपको तैयार करना । आत्म-संयम की ओर अग्रसर होना । दीक्षा को आन्तरिक चेतना का रूपान्तर भी कह सकते हैं । दीक्षा आध्यात्मिक जीवन का प्रवेश द्वार है । दीक्षा का दूसरा नाम वृत्तियों का पवित्रीकरण और संस्कारशीलता भी है ।
मनुष्य अनंतानंत शक्तियों और पुरुषार्थ का स्वामी है किंतु विषय वासना और कषायादि वृत्तियों के कारण उसकी आत्म शक्तियाँ आच्छादित और सुषुप्त बनी हुई है । जिस प्रकार अण्डे के आवरण को तोडकर पक्षी नवीन जीवन धारण करता है, ठीक उसी प्रार आत्म शक्ति को आवृत् करने वाले मोह माया के आवरण को नष्ट कर शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने की साधना का नाम दीक्षा है । दीक्षा के सम्बन्ध में एक कवि का कथन दृष्टव्य है -
विश्वानन्दकरि भवाम्बुधितरी, सर्वाऽऽपदां कर्तरी, मोक्षाध्वैक विलंधनाय विमला, विद्या परा खेचरी |
दृष्टया भावित कल्मषापनयने, बदा प्रतिज्ञा दृढ़ा,
रम्यार्हच्चरितम तनोतु भविनां, दीक्षा मनोवांछितम् ।। अर्थात् विश्व में आनन्द का संचार करने वाली, घोर संसार सागर से पार पहुंचाने वाली, सम्पूर्ण आपदाओं को काटने वाली, मोक्ष मार्ग को पार करने के लिए एकमात्र निर्दोष आकाशगामिनी उत्कृष्ट विद्या है । दृष्टिमात्र से सम्बन्धित पाप मल को हटाने में जो दृढ़ प्रतिज्ञावाली है, ऐसी सुरम्य अर्हत दीक्षा अर्थात् भावगती प्रव्रज्या भव्यजनों को मनोवांछित फल प्रदान करें।
दीक्षा के सम्बन्ध में आगे भी कहा जाता है कि जैन भागवती दीक्षा में साधक आजीवन हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह आदि का तीन करण तीन योग अर्थात् मन, वचन और काया से त्याग करता है एवं स्वयं न करना, दूसरों से न करवाना तथा उन्हें करते हुए का अनुमोदन नहीं करने की प्रतिज्ञा धारण करता है । इस प्रतिज्ञा के धारण करने के साथ ही वह आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करता है । स्वयं पर स्वयं का नियन्त्रण स्थापित करता है । वह अपने 'स्व' का विस्तार कर प्राणिमात्र के साथ मैत्रीभाव का सम्बन्ध स्थापित करता है । सभी जीवों को अपने ही समान समझने लगता है । उनकी समानता और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए वह अपने आपको आत्मानुशासित कर स्व-स्वरूप की प्राप्ति के लिए सदा जागृत रहता है ।
दीक्षा के सम्बन्ध में एक विद्वान ने लिखा है कि दीक्षा आध्यात्मिक जीवनोत्थान का प्रथम यात्रा सोपान है। यहीं से चरम लक्ष्य मोक्ष की यात्रा प्रारम्भ होती है । दीक्षा गुरुजनों का वह प्रसादपूर्ण आशीर्वाद है जो पारलौकिक पहचान ही नहीं दिलाता वरन् इहलौकिक बंधनों व्यवधानों को भी निर्मूल कर देता है । दीक्षा जीवन का परिवर्तन है । दीक्षा प्रक्रिया में वेशपरिवर्तन, सिरमुण्डन गृहपरित्याग आदि सब कुछ होता है । ये सब तो दीक्षा की बाह्य क्रियाएं हैं और ये आभ्यंतरिक परिवर्तन की परिचायक होती है ।
दीक्षा में केश लुंचन होता है, वह तभी सार्थक होता है जब राग-द्वेष की जटायें भी मुंडित हो सकें । ममता-बुद्धि का त्याग आदि दीक्षान्तर्गत परिवर्तन के मूलतत्व है । जिसकी भोग की इच्छा हो वह कभी दीक्षा के लिए पात्र नहीं माना जा सकता। जिसके अन्तर्मन में मोक्ष की कामना का तीव्रतम स्वरूप हो और उसी की प्राप्ति हेतु साधानारत होने के संकल्प के साथ वीतरागी हो जाने की दृढ़ इच्छा वहन करने वाला ही यथार्थ में दीक्षार्थी हो सकता है । दीक्षा का उद्देश्य अचंचल मन से मुक्ति मार्ग पर सतत् गतिशीलता का शुभारम्भ है । दीक्षा की सार्थकता उसी में है कि वह साधना के पथ को ज्योतिर्मय कर दे ।
हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्य ज्योति 31 हेगेन ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति।
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