________________
श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
...............
हेमेन्द्रविजयजी म.सा. अपने गुरुदेव की सेवा में प्राणपण से लगे हुए थे । वे दर्शनार्थियों की जिज्ञासा का भी समुचित रीति से समाधान भी करते थे । तपस्वी मुनिराज की चिकित्सा भी यथावत् चल रही थी किंतु उसका कोई प्रभाव होते दिखाई नहीं दे रहा था । सम्भवतः तपस्वी मुनिराज को अपने अतिम समय की अनुभूति भी हो गई थी । वे इससे तनिक भी विचलित नहीं हुए । ज्ञानियों की यही विशेषता है कि वे मृत्यु से घबराते नहीं हैं, वरन् प्रसन्नता के साथ उसका स्वागत करते हैं । वे इस तथ्य से भलीभांति परिचित रहते हैं कि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु अवश्य है । फिर वे यह भी जानते हैं कि मरण तो शरीर का होता है जो नश्वर है, आत्मा तो अजर अमर है । फिर नश्वर देह के लिये शोक कैसा? अपनी आत्मा को उज्ज्वल बनाने के लिये हर सम्भव प्रयास करना चाहिये और ज्ञानी महापुरुष यही करते भी हैं । कहते है कि टूटी की बूटी नहीं होती । तपस्वी मुनिराज की देह दिन प्रतिदिन क्षीण होती चली जा रही थी और फिर एक दिन देह रूपी पिंजरा छोड कर पंछी उड़ गया । सं. 2013 ज्येष्ठ कृष्णा नवमीं दिनांक 21-6-1957 को मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. का 69 वर्ष की आयु में थराद में स्वर्गवास हो गया । उनके स्वर्गवास से हमारे चरितनायक को तो ऐसा लगा कि उन पर वज्राघात हो गया है । उनके जीवन निर्माता के नहीं रहने से उन्हें गहरा आघात लगा । कुछ दिन तक तो उन्हें ऐसा लगा कि वे इस आघात से उबर नहीं पायेंगे । अब आगे उनका भविष्य क्या होगा? कौन उन्हें मार्गदर्शन प्रदान करेगा? भविष्य में कैसे क्या होगा? कुछ भी समझ में नहीं आ पा रहा था । उन्हें अपने सामने केवल शून्य ही दिखाई दे रही थी । कहते हैं समय सबसे बड़ी औषधि है । जैसे जैसे समय व्यतीत होता गया दुःख के बादल छंटते गये । आपको अपने गुरुदेव द्वारा दी गई शिक्षाएं एक एक कर स्मरण आने लगी । किसी पर ममत्व मत रखो । यह दुःख का सबसे बड़ा कारण है । जीवन क्षण भंगुर है । मानव भव दुर्लभ है । समय रहते उसका सदुपयोग कर लेना चाहिये । देह तो नश्वर है, आत्मा अजर अमर है। आत्मा के उत्थान के लिये प्रयास करना चाहिये । मृत्यु भी जन्म की भांति एक महोत्सव है, उस पर शोक करना व्यर्थ है। आदि आदि इन बातों से आपको सम्बल मिला और आपने अपनी दिनचर्या को यथावत बनायें रखा । साथी मुनियों के साथ विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करते रहे । आघात पर आघात :
अपने गुरुदेव तपस्वी मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. के वियोग को अभी अधिक समय नहीं हुआ था कि उनके गुरुभ्राता आचार्यदेव श्रीमद विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का सं. 2017 पौष शुक्ला द्वितीया को स्वर्गवास हो गया । पू. आचार्यश्री के निधन से आपको गहरा आघात लगा । इस आघात को आपने समभाव से स्वीकार किया। होनी को कोई टाल नहीं सकता । मृत्यु तो अवश्यंभावी है ।
पू. आचार्यश्री के निधन से आचार्य पद रिक्त हो गया । जब तक नवीन आचार्य का निर्णय नहीं हो जाता तब तक वरिष्ठ मुनिराज श्री विद्याविजयजी म.सा. संघ का नेतृत्व करते हुए मार्गदर्शन देते रहे । अंततः आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के निधन के तीन वर्ष पश्चात् संघ ने सं. 2020 फाल्गुन शुक्ला द्वितीया, दिनाक 16-2–1964 को मुनिराज श्री विद्याविजयजी म. सा. को श्री मोहनखेड़ा तीर्थ की पावन भूमि पर आचार्य पद से अलंकृत किया और अब संघ नूतन आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचंद्र सूरीश्वरजी म.सा. के मार्गदर्शन में चलने लगा। आचार्य श्री का वियोग :
लगभग सोलह वर्ष और कुछ माह तक संघ को आचार्य श्रीमद् विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का मार्गदर्शन मिलता रहा । हमारे चिरतनायक गुरुदेव मुनिराज श्री हेमेन्द्र विजयजी म.सा. भी अपने आचार्य भगवंत के मार्गदर्शन में अपनी साधना तथा अन्य सौंपे गये कार्य कुशलतापूर्वक सम्पन्न करते रहे । इस अवधि में अनेक महत्वपूर्ण कार्य सम्पादित हुए । जैसा कि सब जानते हैं, कोई भी अमर नहीं होता। आचार्य श्रीमद विजय विद्याचन्द्र सरीश्वरजी म.सा. का दिनांक 18-7-1980 में अल्प अस्वस्थता के पश्चात निधन हो गया और एक बार पुनः संघ आचार्य विहीन हो गया । आचार्य श्री ने अपने स्वर्गगमन के छतीस घण्टे पूर्व श्रीमोहनखेड़ा तीर्थ के विकास की रूपरेखा भी बता दी थी ।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
36
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्च ज्योति
D