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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ।
अपने गुरुदेव के सान्निध्य में विराजमान रहे । सं. 2004 के वर्षावास की स्वीकृति का समय आचुका था। आचार्य देवेश श्रीमद विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का वर्षावास थराद के लिये स्वीकृत हो चुका था । इसी बीच जिस समय पू. आचार्यश्री थराद में विराजमान थे, उनका स्वास्थ्य एकाएक अधिक अस्वस्थ हो गया । वैसे उनका स्वास्थ्य पूर्व से ही अस्वस्थ चल रहा था किंतु सामान्यतः वे किसी प्रकार की चिंता नहीं करते थे और अपने सभी कार्य सुचारू रूप से करते रहते थे । जब स्वास्थ्य अधिक बिगड़ गया तो तपस्वी मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. को सूचित किया गया। इस समय आप अपने शिष्यों के साथ पालीताणा में ही विराजमान थे। पू. आचार्य श्री आपके गुरुभ्राता भी थे । अतः उनकी अस्वस्थता की सूचना मिलते ही आपने पालीताणा से थराद के लिये उग्र विहार कर दिया । गुरुदेव मुनिराज श्री हेमेन्द्र विजयजी म. के लिये उग्र विहार का यह प्रथम अवसर था । इस विहार में आपने अपने गुरुदेव का पूरा पूरा साथ दिया। इस विहार में आपको यह भी देखने और समझने का अवसर मिला कि उग्र विहार की स्थिति में क्या क्या परिषह आते हैं। मुनि जीवन में अनेक कठिनाइयां आती हैं, वे भी इस अवधि में आपको देखने को मिली । यह सब यहां प्रस्तुत करना एक अप्रांसगिक विषय हो जायेगा । अतः यह लिखना ही उचित होगा कि उग्र विहार कर आप अपने गुरुदेव के साथ पू. आचार्यश्री की सेवा में थराद पधार गये । यहां आते ही मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. आचार्यश्री की सेवा में प्राण पण से जुट गये । आपने स्वयं देखा कि आपके गुरुदेव अपने गुरुभ्राता एवं आर्चाश्री की सेवा सुश्रुषा दत्तचित्त होकर कर रहे हैं । आप भी उनके सहभागी बने । अपने गुरुदेव द्वारा की जाने वाली सेवा सुश्रुषा आपके लिये प्रेरणा स्रोत बन गई । सं. 2004 का वर्षावास पू. आचार्यश्रीमद विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के सान्निध्य में आपका भी थराद में ही सम्पन्न हुआ। इस अवधि में आपने भी पू. आचार्य भगवन की सेवा का अच्छा लाभ लेकर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया।
वर्षावास समाप्त हुआ और आचार्यश्री की आज्ञा से तपस्वी मुनिराजश्री हर्षविजयजी म. ने अपने शिष्य परिवार सहित पीलुड़ा पहुंचकर सं 2005 को मगसर शुक्ला दशमी को वहां प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई । फिर वहां से नैनावा पधारकर माघ शुक्ला पंचमी को वहां भी प्रतिष्ठा सम्पन्न करवाई ।
सं 2005 का वर्षावास आपने थराद में सम्पन्न किया । सं. 2006 का वर्षावास आहोर में किया। यहां आहोर के सम्बन्ध में इतना ही उल्लेख कर देना उचित प्रतीत होता है कि आहोर जैनधर्म का और विशेषकर त्रिस्तुतिक जैन मतावलम्बियों का गढ़ रहा है और आज भी है । यह जैन धर्मावलम्बियों का तीर्थ भी माना जाता है, जो श्री गोड़ी पार्श्वनाथ के नाम से विख्यात है । आहोर में अनेक मुमुक्षुओं के दीक्षोत्सव सम्पन्न हुए और कई मुनि भगवंतों को सूरिपद प्रदान किया गया । प्रातः स्मरणीय विश्वपूज्य गुरुदेव श्रीमज्जैनाचार्य श्रीमदविजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. , व्याख्यान वाचस्पति आचार्य श्रीमदविजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. को सूरिपद यही प्रदान किया गया था । जिन आचार्य भगवन श्रीमदविजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के दर्शन-वंदन और प्रवचन श्रवण से हमारे चरितनायक को वैराग्योत्पति हुई थी, उन आचार्यश्री का स्वर्गगमन भी आहोर में ही हुआ था । हमारे चरित्रनायक को भी सूरिपद आहोर में ही समारोहपूर्वक प्रदान किया गया था। यहां के अनेक भव्यजनों ने जैन भगवती दीक्षा ग्रहण कर आहोर के नाम को उज्ज्वल किया है । ऐसे ऐतिहासिक आहोर में आपका अपने गुरुदेव के सान्निध्य में वर्षावास विभिन्न धार्मिक क्रियाओं और कार्यक्रमों के साथ सानन्द सम्पन्न हुआ।
आहोर में वर्षावास काल में आपको अध्ययन की अच्छी सुविधा प्राप्त हुई । कारण कि यहां गुरुदेव आचार्य श्रीमद विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. द्वारा स्थापित शास्त्र भण्डार है जिसमें अनेक दुर्लभ ग्रन्थ हैं | चूंकि आहोर तीर्थ स्थल भी है । इस कारण यहां वर्षावास की अवधि में दर्शनार्थियों का आवागमन भी अच्छा रहता है । निकटस्थ ही नहीं दूरस्थ स्थानों के श्रद्धालु यहां सदैव आते रहते हैं । यद्यपि आपने अपने सम्पर्क/परिचय बढ़ाने का कोई प्रयास नहीं किया तथापि दूरस्थ ग्राम-नगरों से आए श्रद्धालुओं के साथ सामान्य चर्चा तो होती ही है । इससे आपको दूरस्थ ग्राम-नगरों के विषय में जानने का अवसर मिला । वर्षावास समाप्त हुआ और आपने अपने गुरुदेव के साथ विहार कर दिया ।
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