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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
की वही भूमिका रही जो बौद्ध धर्म के विस्तार में अशोक की थी । इस समय उज्जैन जैनधर्म का मुख्य केन्द्र बन गया था । इनके कालक्रम के बारे में इतिहासककारों में कुछ मतभेद है । आर्य महागिर के विशाल शिष्य परिवार से कुछ गण निकले। आर्य सुहस्ति के 12 मुख्य शिष्यों का उल्लेख कल्पसूत्र में मिलता है । जिनसे छह गणों का जन्म हुआ । इनके शासनकाल में गणधरवंश, वाचकवंश व युगप्रधान आचार्य की परम्परा आरम्भ हुई ।
ईसा पूर्व 235 से 187 के मध्य आचार्य सुस्थित गणाधीश बने । कुछ पट्टावलियों में इनके साथ आचार्य सुप्रतिबद्ध का नाम भी लिया जाता है जो सगे भाई थे तथा साधुओं को आगम ज्ञान देते थे । इस समय तक चन्द्रगुप्त, बिम्बसार द्वारा स्थापित राजनीतिक एकता बिखरने लगी थी । दुर्बल उत्तराधिकारी आक्रमण व आन्तरिक विद्रोह का सामना नहीं कर सके। अंतिम मौर्य राजा बृहदरथ को उसीके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने भरी सभा में मार कर सत्ता पर अधिकार कर लिया । शुंग वैदिक धर्म का पक्षपाती था, उसने जैन व बौद्ध साधुओं पर भारी अत्याचार किए । जैन साधु मगध से कलिग की ओर विहार कर गयें जहां खारवेल का शासन था। कलिंग की कुमारगिरि पर सुस्थित व सुप्रतिबद्ध ने उग्र तपश्चर्या करते हुए सूरिमंत्र के एक करोड़ जाप किये थे । कलिंग जैनधर्म का मुख्य केन्द्र बन गया था ।
ईसापूर्व 187 से ईस्वी 22 के मध्य तीन आचार्य संघनायक रहे । दसवें क्रम पर इन्द्रदिन्नसूरि, ग्यारहवें पर आचार्य दिन्नसूरि व बारहवें क्रम पर सिंहगिरि ने जैन शासन का नेतृत्व किया । दो शताब्दियों के मध्य मात्र तीन नायकों का होना कुछ असामान्य सा लगता हैं । विगत आचार्यों की औसत नेतृत्व अवधि 30 वर्ष रही है। शायद ये दीर्घजीवी रहे हों । दिन्नसरि के प्रशिष्यों से तापसी, कुबेरी आदि शाखाओं का जन्म हुआ । इसी मध्य साधुओं के दाह-संस्कार की परम्परा आरम्भ हुई । सिंहगिरि के शिष्य आर्यसमिति से बृहद्दीपिका शाखा ने जन्म लिया । इनके शिष्य वज्रस्वामी को विशेष अध्ययन हेतु युगप्रधान परम्परा के आचार्य दसपूर्वधर भद्रगुप्तसूरि के पास भेजा था जिससे प्रकट होता है कि उस समय जैन धर्म की विभिन्न धाराओं में परस्पर ज्ञान व विचारों का निर्बाध आदान-प्रदान होता था । इस काल में आचार्य स्वाति, स्कंदिल, रेवतिमित्र, नंदिल आदि प्रभावी व प्रज्ञावान आचार्य हुए व दो नए संवत विक्रम व ईस्वी प्रारम्भ हुए ।
इनके पश्चात ईस्वी की प्रथम शताब्दी में वज़स्वामी, वजसेनसूरि व चन्द्रसूरि हुए । वजस्वामी अंतिम दसपूर्वधर थे । सौलहवें क्रम पर संमतभद्रसूरि नायक बनें । लगभग यहीं समय था जब दिगम्बर मत प्रारम्भ हुआ। वीरसंवत 670 में 17वें आचार्य देवसूरि स्वर्गवासी हुए । इनको प्रथम चैत्यवासी कहा जाता है । इनके पश्चात क्रमशः प्रद्योतनसूरि, मानदेवसूरि, मानतुंगसूरि, वीरसूरि, जयदेवसूरि, देवानन्दसूरि, विक्रमसूरि (विक्रम 578 के लगभग) नरसिंहसूरि, समुद्रसूरि, मानदेवसूरि (द्वितीय), विबुधप्रभसूरि (वीर संवत 1170 के लगभग), रविप्रभसूरि, यशोदेवसूरि, प्रद्युम्नसूरि, मानदेवसूरि (तृतीय) हुए । तत्पश्चात् उद्योतनसूरि आचार्य बने जो बड़गच्छ के प्रथम आचार्य थे । आपका कार्यकाल विक्रम 1061 तक माना जाता है। बड़गच्छ (बृहतगच्छ) की पट्टावलियों में सर्वदेव के पश्चात भिन्नता आ जाती है । सैतीसवें आचार्य देवसूरि को कुछ पट्टावलियों में अजितदेव भी कहा गया है । अगले आचार्य सर्वदेवसूरि (द्वितीय) के जीवन व सालवारी की जानकारी उपलब्ध नहीं है । इनके स्वर्गवास के पश्चात आचार्य द्वय यशोभद्रसूरि व नेमिचंद्रसूरि हुए । नेमिचन्द संभवतः 1129 से 1139 के मध्य आचार्य बने । इन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की । इस समय तक चैत्यवास की परम्परा बहुत शक्तिशाली हो गई थी एवं खरतरगच्छ का जन्म हो गया था । चालीसवें क्रम पर आचार्य मुनिचन्द्रसूरि पदासीन हुए जो प्रभावक आचार्य, कुशल लेखक व विशाल गच्छ के नायक थे । पश्चात इनके शिष्य वादीदेवसूरि से नागपुरिया गच्छ का उदय हुआ जो आगे चलकर पुनः कई भागों में बंट गया । इकतालीसवें आचार्य श्री अजितदेव कुशल वादी थे । आपने संवत 1191 में जीरावला तीर्थ की स्थापना की थी। तत्पश्चात् विजयसिंहसूरि व सोम या प्रभसूरि हुए । उपरोक्त नामवाले अनेक आचार्य होने से इनके विषयक जानकारी भी परस्पर मिल गई है।
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
हेमेन्द्र ज्योति* हेमेन्द्र ज्योति
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