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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
वीर निर्वाण के 1755 वर्ष पश्चात सुधर्मा की निग्रंथ परम्परा को एक नया नामाकरण 'तपागच्छ' प्राप्त हुआ व इसके कारक थे - आचार्य जगच्चन्द्रसूरि । आप विजयसिंह (देव) सूरि के प्रशिष्य व सोमप्रभसूरि के गुरुभाई थे । आपने तत्कालीन शिथिलाचार को समाप्त करने हेतु चैत्रवालगच्छ के देवभद्रगणी व स्वशिष्य दगेन्द्र के साथ विक्रम संवत 1273 में क्रियोद्धार किया व आजीवन आयम्बिल व्रत करने का अभिग्रह किया । एक संदर्भ के अनुसार नाणावाल, कोरंटक, पीपलिक, बड़, राज, चन्द्र आदि गच्छों ने जगच्चन्द्रसूरि को योग्य व संवेगी आचार्य मानते हुए आपकी आज्ञा / अनुशासन में रहना स्वीकार किया था । आपकी उग्र तपश्चर्या से प्रभावित होकर चित्तौड़ नरेश राजा जैत्रसिंह ने आपको 'तपा' के विरूद से शोभित किया । इसीसे इनके गच्छ का नाम तपागच्छ हुआ । नए नामकरण को स्वीकार न करने वालों ने बड़गच्छ के प्रथम अस्तित्व को बनाए रखा मगर मान्यताएँ व आचार संहिता एक ही थी। उस युग के महान श्रावक गुजरात के अमात्य वस्तुपाल व तेजपाल ने अनेक प्रभावक कार्य आपकी प्रेरणा से व निश्रा में कराये थे । विक्रम संवत 1287 में आपका स्वर्गवास हो गया । आपके उत्तराधिकारी आचार्य धर्मघोषसूरि ने मांडवगढ़ के मंत्री पेथड़ व झाझंण को प्रतिबोधित कर अनेक मंदिरों व ज्ञान भण्डारों की स्थापना कराई । आप 30 वर्ष तपागच्छ का नेतृत्व कर 1357 में स्वर्गवासी हुए तत्पश्चात शुद्ध चारित्र व ज्योतिषज्ञान के लिए विख्यात सोमप्रभसूरि ने संवत 1373 तक नेतृत्व प्रदान किया। इनके 4 शिष्य आचार्य थे जिनमें से दो का स्वर्गवास हो जाने के कारण सोमतिलकसूरि को पट्टधर के रूप में स्थापित किया गया । आप अन्य गच्छों में भी आदरणीय थे । अगले पट्टधर श्री देवसुन्दरसूरि का मुख्य योगदान साहित्य की सुरक्षा के संदर्भ में रहा । आपने ताड़पत्रीय ग्रंथों का कागज पर उतारने को बढ़ावा दिया। 50वें आचार्य सोमसुन्दरसूरि ने राणकपुर के विश्वविख्यात मंदिर की प्रतिष्ठा की व साधु वर्ग में व्याप्त अनियमितता को नियंत्रित करने के लिए मर्यादा पट्टक बनाया । आपने अनेक बालावबोध, अवचूरि फाग, व स्तोत्रों की रचना की थी । तपागच्छ की लगभग 50 शाखाओं के 1800 साधु आपके अनुशासन में थे । आपके शिष्य व पट्टधर मुनिसुन्दरसूरि अपने आगम-ज्ञान के कारण दक्षिण भारत में 'काली सरस्वती' के नाम से जाने जाते थे । लगभग इसी समय लुका मत की उत्पत्ति हुई । आपके पश्चात क्रमशः रत्नशेखरसूरि व लक्ष्मीसागरसूरि पदासीन हुए । इसी समय सोमदेव से एक अलग परम्परा आरम्भ हुई जो आगे चलकर संवत 1544 से कमलाकलश शाखा के नाम से जानी गई । अगले नायक सुमतिसाधुसूरि व हेमविमलसूरि हुए जिन्होंने संवत 1547 से 1584 तक नेतृत्व दिया ।
विक्रम की सोलहवी शताब्दी के अन्त तक तपागच्छ की स्थापना हुए लगभग 300 वर्ष हो चुके थे । इस अन्तराल में साधु समुदाय में शिथिलता आ गई थी । अनेक गच्छों व मतों का जन्म हो चुका था । इनके प्रभाव से समाज भी विखण्डित होने लगा था व श्रमण समाज में अराजकता की स्थिति पैदा हो गई थी । अनुयायी समाज को मर्यादा के अन्तर्गत लाने के लिए आपने 400 साधुओं को साथ लेकर क्रियोद्धार किया । शत्रुजय का 16 वां जीर्णोद्धार आपकी प्रेरणा से हुआ था । इसके पश्चात श्री विजयदान सूरि नायक बने इसी समय 1605 में एक नया गच्छ लघु पौषालिक / सोमतिलक शाखा के नाम से अस्तित्व में आया ।
संवत 1622 में श्री हीरविजयसूरि गच्छनायक बने व तपागच्छ ने ख्याति व विस्तार के उच्च स्तरों को प्राप्त किया । सम्राट अकबर इनका अत्यधिक सम्मान करता था व इनके आग्रह पर जीवदया आदि के अनेक फरमान जारी किये थे । आपका शिष्य समुदाय बहुत ही विशाल था । आपने अनेक ग्रंथों की रचना की । आपके जीवन के संदर्भ में अनेक काव्य व अन्य रचनाएं लिखी गई है । आपके पश्चात तपागच्छ कई गच्छों में विभाजित हो गया। मुख्यधारा में श्री विजयसेन सूरि व इनके बाद 60 से 63 वें क्रम पर क्रमशः विजयदेवसूरि, विजयसिंहसूरि, विजयप्रभसूरि व विजयरत्नसूरि गच्छाधिपति बनें। 64 वें गच्छाधिपति श्री वृद्धक्षमासूरि जिन्होंने कल्पसूत्र का गुजराती अनुवाद (भीमाशाही कल्पसूत्र के नाम से विख्यात) किया था, का स्वर्गवास संवत 1785 में दिन में हुआ व विजय देवेन्द्रसूरि प्रधान बनें । आचार्य पद ग्रहण करते ही अपने गुरु के समान ही आजीवन आयम्बिल व्रत अंगीकार कर लिया था । उदयपुर महाराणा ने आपको 'कार्मण सरस्वती' संबोधन से अलंकृत किया था । अपने शिष्य कल्याणविजय को आचार्य पद प्रदान कर संवत 1870 में जोधपुर में देह-त्याग की । आचार्य विजयकल्याणसूरि
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