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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
वैराग्य :
बालक जगन्नाथ का अध्ययन चल रहा था। इसके साथ ही उसका आध्यात्मिक चिंतन भी चलता रहता था । उसका आध्यात्मिक चिंतन धार्मिक अध्ययन का प्रतिफल था। वह विचार करता - 'आदमी अपने लिये ऊंचे ऊंचे महल बनवाता है, भव्य मन्दिरों का निर्माण करवाता है, धन सम्पत्ति एकत्र करता है किंतु उन सबको छोड़ कर उसे एक दिन तो जाना ही पड़ता है। उसकी अर्जित सम्पत्ति आदि यही रह जाती है। उसके साथ कुछ भी नहीं जाता है फिर भी व्यक्ति इनके मोह में फंसा हुआ है । यहां तक कि परिजन भी कुछ दिन उसके वियोग में शोक मनाकर सामान्य हो जाते हैं और अपने कामकाज में मग्न हो जाते हैं। जगन्नाथ ने पुस्तक में पढ़ा था कि ये सब कुछ यहां के यहीं रह जाते हैं । यदि व्यक्ति के साथ कुछ जाता है तो उसके कर्म-पुण्य और पाप । तब फिर यह सब झंझट क्यों ? संसार का मोह त्याग देना चाहिये । उसके माया जाल को तोड़कर फेंक देना चाहिये । यह मानव देह सौभाग्य से मिली है। यह भी नश्वर है । यदि शाश्वत है अजर अमर है तो बस केवल आत्मा । आत्मा के कल्याण की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। इस असार संसार में रहकर पाप की पोटली क्यों बांधी जाय ? जगन्नाथ का चिंतन इसी प्रकार चलता रहता । कोई पूछता "जगन्नाथ! क्या विचार कर रहे हो?"
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"विचार चल रहे हैं । इस असार संसार के विषय में चिंतन हो रहा है । वैराग्यपूर्ण भावों का उदय हो रहा है। सोचता हूं, सब मायाजाल को छोड़कर अनंत सुख की खोज के लिये निकल पडूं ।" जगन्नाथ का उत्तर यही होता है ।
"अभी तो तू बालक है । वैराग्य का मार्ग सरल नहीं है । जब बड़ा हो जाय तब जैसा उचित लगे वैसा
करना।"
"काल का कोई भरोसा नहीं है । वह कब आ जाये । आत्म-कल्याण के मार्ग को अपनाने में किसी प्रकार का विलम्ब नहीं करना चाहिये । यदि कोई विलम्ब करता है तो वह मूर्ख है। मैं तो इसी समय संसार का त्याग करना चाहता हूं।"
श्रेष्ठी केशरीमलजी बालक जगन्नाथ के सतत सम्पर्क में रहते । वे जगन्नाथ की उत्कृष्ट वैराग्य भावना से अत्यधिक प्रभावित भी हुए । छोटी आयु में ऐसी उच्च भावना विरले ही भव्य जनों में देखने को मिलती है । वे जगन्नाथ को अपने यहां बुलाते और उसकी धर्म प्रवृत्ति को देखकर आनन्द का अनुभव करते और स्वयं भी पुण्यार्जन करने का प्रयास करते ।
जब हम वैराग्य के कारणों का अध्ययन करते है तो शास्त्रों में अनेक कारण मिलते हैं। उनमें एक कारण ज्ञानगर्भित वैराग्य भी बताया गया है । हमारे चरितनायक का वैराग्य भाव ज्ञानगर्भित वैराग्य की श्रेणी में आता है। यह वैराग्यभाव स्थायी होता है और श्रेष्ठ माना जाता है ।
केशरीमलजी पारख :
उल्लेखनीय है कि जब जगन्नाथ चार वर्ष का था, तब उसके पिता श्रीमान् कालूरामजी का स्वर्गवास हो गया था और एक वर्ष पूर्व माता रुक्मणि का भी स्वर्गवास हो गया था। माता-पिता के स्वर्गवास ने उसके चिंतन को और भी परिपक्व बना दिया था श्रेष्ठी केशरीमलजी का जगन्नाथ पर विशेष स्नेहभाव था और वे अधिक समय तक उसे अपने पास रखना चाहते थे ।
पू. गुरुदेव के दर्शन :
श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय आचार्य भगवन श्रीमद विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. का नाम उस समय भारतवर्ष के कोने कोने में गूंज रहा था। इसका प्रमुख कारण यह था कि उन्होंने शिथिलाचार को दूर करने का शंखनाद किया था और स्वयं ने भी क्रियोद्धार कर शुद्ध चारित्र धर्म ग्रहण किया था। दूसरे उस समय उनके ज्ञान का डंका भी बज रहा था । इस समय पूज्य गुरुदेव मध्यभारत के कुक्षी नगर में विरजमान थे । श्रेष्ठी केशरीमलजी
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