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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन गंथ
यह चल समारोह दीक्षा स्थल पर आकर धर्मसभा के रूप में परिवर्तित हो गया । पू. गुरुदेव पाट पर उच्चासन पर विराजमान हुए और उनके आसपास अन्य मुनिराज विराजित हो गये । इस अवसर पर पूज्य गुरुदेव ने त्याग मार्ग को समझाते हुए अपना प्रवचन फरमाया और अपार जन समूह की साक्षी में निश्चित मुहूर्त पर समस्त
औपचारिकताएं पूरी कर वैराग्य मूर्ति जगन्नाथ को दीक्षा व्रत प्रदान कर मुनि श्री हर्षविजयजी म. के नाम से अपना शिष्य घोषित कर प्रसिद्ध किया। तपस्वीपद :
दीक्षोपरांत नवदीक्षित मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. अपने गुरुदेव आचार्य श्रीमदविजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा, की सेवा में रहकर ज्ञानोपार्जन करने में जुट गये | गुरुदेव के साथ साथ ग्राम-ग्राम, नगर-नगर विचरण भी करते रहे । इसी बीच कुछ तीर्थ स्थानों की यात्रा भी की । वहां दर्शन वंदन - पूजन का लाभ भी मिला । प्रतिष्ठाएं, उपधान तपादि भी पूज्य गुरुदेव के पावन सान्निध्य में सम्पन्न हुए । मुनि श्री हर्षविजयजी म. ने ये सब क्रियाएं देखी और सीखी । इस प्रकार आपकी संयम यात्रा के आठ वर्ष व्यतीत हो गये । इस अवधि में आपने विविध प्रकार की तपस्याएं भी की । आपकी सेवाभावना और उग्र तपस्याओं के परिणाम स्वरूप आपको तपस्वी एवं सेवाभावी की उपाधि से अलंकृत किया गया । गुरुदेवश्री का वियोग :
चातुर्मास काल व्यतीत हो चुका था । पू. गुरुदेव आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. अपने शिष्य परिवार के साथ राजगढ़ (धार) में विराजमान थे । मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. भी उनकी सेवामें ही थे । इस समय पू. गुरुदेव का स्वास्थ्य अस्वस्थ था । उनकी अस्वस्थता के समाचार चारों ओर प्रसारित हो गये थे । परिणाम स्वरूप निकटस्थ एवं दूरस्थ के ग्राम-नगरों से गुरु भक्तों का दर्शनार्थ सतत आवागमन बना हुआ था । पौष शुक्ला षष्ठी को गुरुदेव ने अपना अंतिम संदेश दिया । अपने शिष्य परिवार को अपना आशीर्वाद दिया । मुनिमण्डल की मुख मुद्रा पर चिंता की रेखायें खिंच गई किंतु आज तक मृत्यु को कौन टाल पाया है । जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु अटल है। टूटी की बूटी नहीं है । पू. गुरुदेव ने अंतिम सांस ली और इस प्रकार सभी मुनिराजों के साथ मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. को भी अपने जीवन निर्माता गुरुदेव का वियोग सहन करना पड़ा । पौष शुक्ला सप्तमी वि.सं. 1963 को गुरुदेव का अंतिम संस्कार किया गया । गुरुदेव के स्वर्गगमन से सर्वत्र शोक की लहर व्याप्त हो गई।
पू. गुरुदेव आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के देवलोकगमन के पश्चात् वि. सं. 1964 वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन मुनिराज श्री धनविजय जी म.सा. को आचार्य पद से अलंकृत किया गया । स्मरण रहे वैशाख शुक्ला तृतीया का यही दिन हमारे चरित्रनायक का जन्म दिन भी है । उनके बीसवें जन्म दिन पर उन्हें दूसरे आचार्यदेव का सान्निध्य मिला। वि. सं. 1964 से वि. सं. 1977 तक कुल चौदह वर्ष तक मुनिराज श्री हर्षविजयजी म. पू. आचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के सान्निध्य में रहे । इन चौदह वर्षों में आपने आचार्यदेव की अपूर्व सेवाभक्ति का लाभ लिया और अपने मनोबल में अपूर्व वृद्धि कर वचनसिद्धि का वैशिष्ट्य प्राप्त किया । आचार्यश्री धनचन्द्र सूरि का वियोग :
चातुर्मास काल में आचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी म. बागरा जिला जालोर में अपने शिष्यों सहित विराजमान थे । उत्तरोत्तर धर्म की वृद्धि हो रही थी । पर्युषण पर्व के अवसर पर आचार्य भगवन ने संकेत कर दिया कि वे सांवत्सरिक प्रतिक्रमण नहीं कर पायेंगे । श्री महावीर जन्म वाचन का दिन आया और उसी दिन आचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी म. का स्वर्गगमन हो गया । सर्वत्रशोक व्याप्त हो गया ।
हमारे चरित्रनायक मुनिराज श्री हर्षविजयजी म.सा. ने आचार्यश्री की सेवाभक्ति का अपूर्व लाभ लिया । जो सेवा आपने की वह अनुपम थी । हमारे चरित्रनायक के सिर से दूसरे आचार्य भगवन का छत्र उठ गया ।
हेमेन्द्रर ज्योति* हेमेन्द्रज्योति
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हेमेन्द्र ज्योति * हेमेन्द्र ज्योति
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