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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
प्रथम गणधर सुधर्मास्वामी की यह परम्परा निग्रन्थ परम्परा कहलाती थी । आचार्य सुहस्ति के शिष्य आचार्य द्वय सुस्थित व सुप्रतिबद्ध द्वारा उदयगिरि पर सूरि मंत्र के एक करोड़ जाप करने से इसका दूसरा नामाकरण "कौटिक गच्छ" हुआ । अंतिम दसपूर्व के ज्ञाता वज्रस्वामी के प्रशिष्य नागेन्द्र, चन्द्र, निवृति व विद्याधर के नाम से एक–एक गच्छ स्थापित हुआ व इनमें भी 84 उपगच्छ बनें । मुख्यधारा चन्द्रगच्छ की होने से निग्रंथ परम्परा ने तीसरा नाम 'चन्द्र गच्छ' प्राप्त किया। दिगम्बर व श्वेताम्बर परम्परा में समानरूपेण आदर प्राप्त करने वाले समंतभद्रसूरि व उनके शिष्यों के वन में रहने के कारण इसका एक और नामकरण 'वनवासीगच्छ' हुआ । आचार्य उद्योतनसूरि द्वारा सर्वदेवसूरि सहित आठ मुनियों को एक साथ एक वट वृक्ष के नीचे आचार्य पद प्रदान किये जाने से सर्वदेवसूरि व उनके शिष्यों से 'बड़ गच्छ' नाम अस्तित्व में आया । आचार्य जगच्चन्द्रसूरि ने विक्रम संवत 1273 में क्रियोद्धार कर आजीवन आयम्बिल करने का व्रत लिया । कठोर तपश्यचर्या के कारण इस परम्परा का अगला नामकरण 'तपागच्छ' हुआ । तपागच्छ से भी अनेक शाखा प्रशाखा प्रस्फुटित हुई जो आज भी विद्यमान है । समाचारी व क्रियाओं में भी अन्तर आए । श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने त्रिस्तुतिक प्राचीन मान्यता को पुर्नस्थापित किया । इस मान्यता को स्वीकार करने वाला समुदाय 'सौधर्मवृहत्तपागच्छ' के नाम से शोभित होता है ।
आचार्य परम्परा से आशय संघ के नायक आचार्य से होता है जिसका आदेश व नेतृत्व चतुर्विध संघ स्वीकार करता हो । आचार्य में किन गुणों का होना आवश्यक है इसका उल्लेख शास्त्रों में मिलता है । परम्परा के इतिहास में अनेक ऐसे अवसर भी उपलब्ध है जब एक समय में एक ही गच्छ समुदाय में एक से अधिक आचार्य रहे है मगर गुरुत्व/नेतृत्व एक ही आचार्य के हाथों में रहा । आचार्य यशोभद्रसूरि, संभूतिविजय, स्थूलभद्र आदि गणनायकों के शिष्यों में अनेक आचार्य (स्थविर) थे । यह परम्परा आगे भी जारी रहीं । तपागच्छ से स्थापक आचार्य जगच्चन्द्रसूरि, सोमप्रभसूरि, सोमतिलकसूरि, सोमसुन्दरसूरि, हीरविजयसूरि आदि गणनायकों के गण / गच्छ में सूरि / आचार्य पदधारी अनेक शिष्य थे । मगर सभी आचार्यों को पट्टावलियों में गच्छनायक के रूप में शामिल नहीं किया गया है। कुछ प्रसंगों में इन आचार्यों या इनके शिष्यों द्वारा धार्मिक क्रियाओं, मान्यताओं व कभी-कभी व्यक्तित्व की टकराहट के कारण अपने अलग गच्छ कायम कर लिए ।
आचार्य परम्परा की अनेक पट्टावलियां प्रचलित है । श्वेताम्बर व दिगम्बर मान्यता तो पृथक है ही मगर दोनों परम्परा में भी कई-कई गच्छ व उपभेद होनें से पट्टावलियों में अन्तर दिखाई देता है । श्वेताम्बर समाज मूर्तिपूजक, स्थानकवासी आदि विभागों में विभक्त है । मूर्तिपूजक संप्रदाय में तपा, खरतर आदि गच्छ है । इन गच्छों के भी कई उपविभाग है । इन उपविभागों के भी विभाजन है जिनकी अपनी प्रथक पट्टावली है । तपागच्छ संस्थापक श्री जगच्चन्द्रसूरि से हीरविजय सूरि तक लगभग समान पट्टावलियां है, मगर पश्चातवर्ती आचार्य विजयसेनसूरि व विजयदेवसूरि के समय व बाद में काफी शाखाऐं अस्तित्व में आई । सौधर्मवृहत्तपागच्छ तपागच्छ की ही एक शाखा है। जो सुधर्मा की परम्परा के तपागच्छ नामाकरण को अंगीकार करती है ।
परम्परा में प्रथम दो आचार्य सुधर्मा व जम्बूस्वामी केवलज्ञानी थे । सुधर्मा की दीक्षा व चर्तुविध संघ की स्थापना एक ही दिवस हुई थी । वीरनिवार्ण के बारह वर्ष पश्चात इनको केवलज्ञान प्राप्त हुआ व आठ वर्ष केवली अवस्था में विचरण करते हुए विक्रम पूर्व 450 में राजगृही में मोक्षगत हुए । अंतिम केवलज्ञानी आचार्य जम्बूस्वामी ने 16 वर्ष की तरुणावस्था में अपने विवाह के दूसरे दिवस ही अपनी आठ पत्नियों के साथ सुधर्मास्वामी से दीक्षा गृहण की थी व बीस वर्ष की संयम-साधना के पश्चात केवलज्ञानी हुए । वीर संवत 64 अर्थात ईस्वी पूर्व 462 में मोक्ष को प्राप्त हुए । जंबूस्वामी से संबधित कई गाथाऐं व चरित्र जैन साहित्य की अनमोल व लोकप्रिय धरोहर हैं । जंबूस्वामी के साथ ही मनःपर्याय ज्ञान, परमावधि ज्ञान, पुलाकलब्धि, जिनकल्प, सिद्धिपद आदि का विलोप हो गया । जंबू के पश्चात श्रुतकेवली आचार्यों की श्रृखंला आरम्भ हुई जो आचार्य भद्रबाहु (ईसा पूर्व 359 ) तक चली ।
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