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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
सौधर्म बृहत्तपागच्छीय आचार्य परम्परा
आचार्य श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरिजी म.सा. के शिष्य रत्न
-मुनि ऋषभचन्द्र विजय विद्यार्थी अनादि काल से चली आ रही अखण्ड जैन परम्परा में तीर्थंकर निग्रंथ संघ की स्थापना करते हैं । गणधर तीर्थंकरों देवों के शिष्य समुदाय का सम्यक संचालन करते हैं । वे तीर्थकरों के मंगल प्रवचनों को ग्रहण कर आगमों की रचना करते हैं तथा जब तीर्थंकर नहीं होते हैं, उस अवधि में, संघ को मार्गदर्शन व नेतृत्व प्रदान करते हैं । छत्तीस गुणों से युक्त होकर वे तीर्थंकरों के उपदेश जनता में प्रचारित प्रसारित करते हैं । आचार्य परम्परा के सुवाहक होते हैं ।
वर्तमान युग के अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर के विक्रम पूर्व 501/500 की वैशाख शुकल 11 के शुभ दिवस पावापुरी (अपापानगरी) में अपने गणधरों सहित साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका के चर्तुविध श्रीसंघ की स्थापना की थी। महावीर के ग्यारह गणधर थे । इनमें से नौ गणधर को भगवान के जीवनकाल में ही मोक्ष प्राप्त हो गया था व इनकी श्रमण सम्पदा गणधर सुधर्मस्वामी के गण में शामिल हो गई थी । प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम (गौतम स्वामी) को भगवान के निर्वाण के साथ ही केवल ज्ञान प्राप्त हो गया । अतः आचार्य परम्परा का प्रारम्भ सुधर्मास्वामी से माना जाता हैं । दिगम्बर मान्यता में गौतमस्वामी प्रथम आचार्य माने जाते हैं । आचार्य सुधर्मा से आरम्भ हुई यह परम्परा विभिन्न गच्छों में विभाजित भी हुई, उनके नामाकरण में परिवर्तन हुए, मगर इसकी अविच्छिन्नता व निरंतरता बनी रही।
भगवान महावीर के समय में भी पूर्व तीर्थंकर पार्श्वनाथ की परम्परा जारी थी व उनके प्रधानाचार्य श्री केशीस्वामी थे जिन्होंने महावीर के गणधर गौतम के साथ विचार-विमर्श कर भगवान के शासन में प्रवेश लिया था। इसकी पहचान अब भी पार्श्व संतानीय उपकेशगच्छ या कंवलागच्छ के रूप में की जाती है।
गणधरवंश व वाचकवंश महावीर परम्परा के दो प्रवाह है । ये प्रवाह अलग होते हुए भी सहयोगी ही रहे थे। संघ नायक आचार्यगण की देखभाल, मार्गदर्शन, साधुओं को आगम वाचना देना व श्रुत परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने का कार्य स्वयं ही करते थे । मगर संघ विस्तार के कारण आगे चलकर यह संभव नहीं रहा । आचार्य महावीर तक एक ही परम्परा रहीं । महावीर आगम वाचना देते थे व आचार्य सुहस्ति गण का प्रबंध करते थे । इस व्यवस्था ने आगे चलकर परम्परा का रूप ले लिया । दोनों का शिष्य समुदाय प्रथक था । महावीर के शिष्यों से वाचक परम्परा का जन्म हुआ जिसमें सुहस्ति के पश्चात बलस्सिह का नाम आता है जो वीर संवत 245 में आचार्य बने थे । इसी प्रकार एक अन्य परम्परा और विकसित हुई जिसे युगप्रधान के नाम से संबोधित किया जाता है । किसी समयावधि विशेष में जैनधर्म की प्रभावना में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले आचार्य युगप्रधान कहे गयें । ये संघनायक या वाचनाचार्य भी हो सकते थे या इनसे पृथक कोई आचार्य भी। यही कारण है कि श्यामाचार्य, स्कंदिल आदि वाचनाचार्य व वजस्वामी आदि संघनायक को युगप्रधान मानकर उनको पट्टावली में स्थान दिया गया । वाचक परम्परा ज्ञान व शिक्षा-प्रधान थी और गणधर परम्परा संभवतः आचार, लोकप्रियता तथा संगठन कौशल के आधार पर अपना नायक चयन करती थी । सभी परम्पराओं में आचार्य सुधर्मा से सुहस्ति तक के समस्त संघनायकों को अपनी परम्परा के पूर्वजों के रूप में स्वीकारा गया है। पृथक से प्रथम युगप्रधान गुणसुन्दरसूरि को माना जाता है जो आचार्य सुहस्ति के शिष्य थे व मेघगणी के नाम से भी जाने जाते हैं । वीरसंवत 291 में जब सुस्थितसूरि संघनायक बनें उसी वर्ष से मेघगणी को युग प्रधान कहा गया हैं ।
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