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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
* गुरुदेव की योगसिद्धि
__-मुनिराज श्री हर्षविजयजी अध्यात्मवाद और योगिसिद्धि ये भारतीय धर्मों की मूल वस्तु कही जाय तो किसी तरह की अतिशयोक्ति नहीं होगी। चिरकाल से ही इनको धर्मक्षेत्र में प्रधानता दी गई है । सम्पूर्ण योगसिद्ध व्यक्ति ही अपनी ज्ञानात्मा द्वारा चराचर विश्व के पदार्थों को जान सकता है । इसलिये इस स्तर के ज्ञान को ही पूर्णतया ज्ञान कहा गया है, इससे पहिले की अवस्थाएं अपूर्ण ही कही जाती है ।
योग शब्द 'युजिर योगे इस धातु से निष्पन्न होता है । योग शब्द की व्याख्याएं अनेक प्रकार से अपनी अपनी मान्यतानुसार की गई है । परन्तु फिर भी सभी की मान्यता में योग शब्द का मूलस्वरूप एकसा ही प्राप्त होता है। 'चित्तवृत्तिनिरोधो योगः' इससे यही मतलब निकलता है कि -मानसिक अशुभ प्रवृत्तियों का निग्रह करना ही योग है । मानसिक कहने मात्र से स्वयं ही वाचिक और कायिक अशुभ प्रवृत्तियों का निग्रह करना सिद्ध हो जाता है ।
जैनदर्शन में योग का लक्षण यही बतलाया है "कायवाङ्मनः कर्मयोगः" तत्त्वार्थसूत्र । आत्मा की मानसिक, वाचिक, कायिक क्रिया के द्वारा कर्मों का आत्मा के साथ संबंध होना योग कहा गया है । फिर चाहे योगों में शुभ या अशुभ भाव हों, अशुभ योग त्याज्य हैं जब कि शुभ योग जीवन में उपादेय माने गये हैं।
योगसिद्ध व्यक्ति अपनी यौगिक क्रिया के द्वारा परमात्मपद तक पहुंच सकता है । इस मान्यता में किसी तरह का संशय नहीं है । ज्ञानात्मा, परमात्मा आदि जो श्रेणियां दिखाई देती है, वे योग पर ही निर्भर हैं । योगसिद्ध व्यक्ति के विषय में या उनके जीवन में कई अनेक प्रकार की असंभव-आश्चर्यकारी घटनाएं सुनने में आती हैं । वे योगसिद्धजन्य ही रही हुई हैं । फिर वे चाहे थोड़े या अधिक विस्मय से परिपूर्ण हों ।
योगीराज प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्र सुरीश्वरजी महाराज ने अपने विशुद्ध साधुजीवन में उत्कृष्ट संयम के पालन से जो अद्भुत योगसिद्धियां प्राप्त की है उन्हीं में से केवल एक संबंधित एवं आश्चर्यकारी घटना यहां पर बतलाना आवश्यक मानी गई है । योगसिद्ध व्यक्ति योग के प्रभाव से अपने योगों में इतना तन्मय हो जात है कि भूत, भविष्य एवं वर्तमानकालीन सभी बातों को अपने ज्ञान द्वारा जानने में समर्थ बन सकता है । गुरुदेवने अपने योगबल के द्वारा कई असंभव और बड़े-बड़े भारी कार्यों को भी सहज में कर दिखाएं हैं ।
___1. मालावा प्रान्त में बड़नगर और खाचरौद के बीच में चिरोला नामक एक गांव आया हुआ है । कई वर्षों से चिरोलवाले ओसवालों का मालवा प्रान्तीय ओसवाल आदि सभी समाजों ने बहिष्कार कर दिया था । इसका मुख्य कारण यह था कि पिता और माता ने अपनी एक ही कन्या की शादी करने का निर्णय, अलग अलग रतलाम और सीतामऊ वाले दो अलग अलग वरों के साथ किया । ठीक समय पर दोनों जगह से वर बड़ी धूमधाम के साथ अपनी-अपनी बरात सजाकर लग्न के लिये आये । इस तरह से एक ही कन्या के लिये दो वर और उनकी बरातों को आई हुई देखकर चिरोला और उसके समीपवर्ती पंचो ने यही निश्चय किया कि - माता ने लड़की के विवाह का जो निश्चय सीमातऊवाले के साथ किया है वही हो और अन्त में वही होकर रहा । इस निर्णय से रतलामवालों को अपना बड़ा भारी अपमान जान पड़ा और उन्होंने मालवा प्रान्त की समाज को एकत्र कर चिरोलावालों का सम्पूर्ण बहिष्कार किया । यह मामला इतनी उग्रता पर बढ़ने लगा कि चिरोलावाले और उनके कुछ पक्षीय लोग सभी तरह से हताश होने लगे । विवाहादि संबन्ध तो दूर रहे परन्तु इनके हाथ का पानी पीना भी बड़ा भारी अपराध माना जाने लगा । सारे प्रान्त में अपने इस तिरस्कार, जाति बाहर से अन्त में चिरोलावालों को सभी तरह से बड़ी भारी परेशानी होने लगी । अपने अपराध की माफी और दण्ड आदि देकर जातीय एवं पारस्परिक संबन्ध के स्थापनार्थ उन्होंने कई
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