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श्री राष्ट्रसंत शिरोमणि अभिनंदन ग्रंथ
क्रिया में आप बड़े कट्टर थे । वृद्धावस्था के कारण आपको आहोर में ही स्थायी रहना पड़ा था। आपके रत्नविजयजी और ऋद्धिविजयजी ये दो शिष्य थे । वि. संवतृ 1924 वैशाख शु. 5 के दिन श्रीसंघाग्रह से महामहोत्सवपूर्वक आपने श्रीरत्नविजयजी को आचार्यपदारूढ़ किया था और श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजी नाम से उनको प्रसिद्ध किया । संवत् 1934 चैत्र कृ. अमावस को आहोर में आपका स्वर्गवास हुआ ।
68. श्री विजय राजेन्द्रसूरिजी :
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आपका जन्म वि. संवत् 1883 पौष शु. 7 गुरुवार को अछनेरा रेलवे स्टेशन से 17 मील दूर और आगरे के किले से 34 मील दूर पश्चिम में राजपूताना भरतपुर नगर में ओशवंशीय पारखगोत्री शेठ श्रीऋषभदासजी की धर्मपत्नी केशरबाई से हुआ था । आपका जन्म नाम रत्नराज था । बड़े भाई मानकचन्दजी व छोटी बहिन प्रेमाबाई थी । उदयपुर (मेवाड़) में श्रीप्रमोदसूरिजी के उपदेश से संवत् 1903 वैशाख शु. 5 शुक्रवार को श्री हेमविजयजी के पास आपने दीक्षा ली और नाम मुनि श्रीरत्नविजयजी रखा गया ।
खरतरगच्छीय यति श्रीसागरचन्द्रजी के पास व्याकरण, न्याय, काव्यादि ग्रन्थों का अभ्यास और तपागच्छीय श्रीदेवेन्द्र सूरिजी के पास रहकर जैनागमों का विधिपूर्वक अध्ययन किया । संवत् 1909 वैशाख शुक्ला 3 के दिन उदयपुर (मेवाड़) में श्री हेमविजयजी ने आपको बृहद्दीक्षा और गणी (पन्यास) पद दिया । वि.सं. 1924 वैशाख शुक्ला 5 बुधवार को श्री प्रमोदसूरिजी ने आपको आचार्यपदवी दी, जिसका महोत्सव आहोर (मारवाड़) के ठाकुर श्रीयशवन्तसिंहजीने बड़े समारोह से किया और आपका नाम 'श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजी रखा गया। वि.सं. 1925 आषाढ़ कृ. 10 बुधवार के दिन जावरा (मालवा) में आपने श्री पूज्य श्रीधरणेन्द्रसूरि के सिद्धकुशल और मोतीविजय इन दोनों यतियों के द्वारा श्रीपूज्य सुधार सम्बन्धी नव कलमें स्वीकार करवा कर और उन पर उनके हस्ताक्षर करवा कर शास्त्रीय विधि विधानपूर्वक महामहोत्सव सह क्रियोद्धार किया । इसी समय आपके पास भींडर (मेवाड़) के यति प्रमोदेरुचिजी और धानेरा (पालनपुर) के यति लक्ष्मीविजयजी के शिष्य धनविजयजी ने पंचमहाव्रत रूप दीक्षोपसंपद् ग्रहण की । सं. 1927 के कुकसी के चातुर्मास में श्रीसंघ के आग्रह से आपने व्याख्यान में 45 आगम सार्थ बांचे थे।
क्रियोद्धार के पश्चात् आपके करकमलों से 22 अंजनशलाका और अनेक प्रतिष्ठाएं सम्पन्न हुई थी । आपने चिरोला जैसे महाभंयकर 250 वर्ष पुराने जाति कलह को भी मिटाया था । आपने लोकोपकारार्थ प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी और गुजराती भाषा में श्रीअभिधान राजेन्द्रकोश, पाइयसदबुहिकोश, प्राकृतव्याकरण व्याकृति टीका (पद्य). श्रीकल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी टीका, श्री कल्याणमन्दिरस्तोत्र प्रक्रिया टीका, सकलैश्वर्य स्तोत्र, शब्दकौमुदी (पद्य) धातुपाठतरंग और सिद्धान्तप्रकाश आदि 61 ग्रन्थों की रचना की । आपके जीवन के अनेक कार्य हैं, जिनका विशेष परिचय 'श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर जीवनप्रभा' से जानना चाहिये । आपके हस्तदीक्षित श्रीधनचन्द्रसूरिजी, प्रमोदरुचिजी और मोहनविजयजी आदि 19 शिष्य और श्री अमरश्रीजी, विद्याश्रीजी, प्रेमश्रीजी, मानश्रीजी आदि साध्वियाँ हैं । झाबुवा और चिरोला नरेश तथा सियाणा (राजस्थान) के ठाकुर आपके पूर्ण भक्त थे और आपके फोटू के नितप्रति दर्शन-पूजन करते थे । संवत् 1963 पौष शु. 6 गुरुवार की रात्रि को आठ बजे राजगढ़ (मालवा) में अर्हम् अर्हम् का उच्चारण करते हुए आपका स्वर्गवास हुआ । आपके स्वर्गवास के समय धार और झाबुवा के नरेश भी अन्तिम दर्शन को आए थे । स्वर्गवासोत्सव में राजगढ के जैन त्रिस्तुतिकसंघने तथा आगन्तुक संघने नव हजार की निछरावल की थी । पौष शुक्ला 7 शुक्रवार को राजगढ से एक मील दूर आपके ही दिव्योपदेश से संस्थापित जैन श्वे. तीर्थ श्री मोहनखेड़ा में जहां आपके पार्थिव शरीर का अग्नि संस्कार किया गया था, वहीं पर एक अति रमणीय संगमरमर का समाधि-मन्दिर निर्माण कराने का निश्चय किया गया, जिसमें आपकी रम्य मनोहर प्रतिकृति (प्रतिमा) आज विराजित है । अन्त्येष्ठि क्रिया के दिन ही से प्रतिवर्ष आपकी जयंती मनाई जाती है ।
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