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अभिसारना
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अभुक्त-मूल अभिसारना-क्रि० अ० (सं० अभिसरण ) | स्त्री० अभीप्सिता।
दे० अभिसरना-अभिसार करना। अभीम - वि० (सं० ) जो भीम या भीषण अभिसारिका- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) वह | न हो, जो भारी न हो, जो बहुत बड़ा न स्त्री जो प्रिय से मिलने के लिये संकेत
हो, छोटा, लधु । स्थान पर जाती है या प्रिय को ही बुलाती
अभीर-संज्ञा, पु० दे० (सं० ) गोप, अहीर, है, यह दो प्रकार की होती है -- कृष्णा
ग्वाला, एक छंद। भिसारिका और शुक्लाभिसारिका--प्रथम तो
वि० ( अ- भीर ) निडर, निर्भय, भीड़श्याम वस्त्राभूषणों के साथ कृष्ण पक्ष की
रहित । निशा में और द्वितीय सफ़ेद वस्त्राभूषणों के
वि० अभीरी-अहीरी, अहीर की । साथ शुक्ल पक्ष की रात में चलती है। अभिसारिणी-- संज्ञा, स्त्री० (सं०)
अभीरु-वि० (सं०) निर्दोष, निर्भय, अभिसारिका।
निर्भीक । अभिसारी-वि० (सं० अभिसारिन् ) | संज्ञा, पु. ( सं० ) महादेव, भैरव, शतावरि। साधक, सहायक, प्रिया से मिलने के लिये | अभीष्ट-वि० (सं० ) वांछित, चित चाहा, संकेत स्थल को जाने वाला।
मनोनीत, पसंद अभिप्रेत, आशयानुकूल, स्त्री० अभिसारिका।।
अभिलषित, इच्छित ।। अभिसेक-अभिसेख-संज्ञा, पु० दे० (सं० । संज्ञा, पु. ( सं० ) मनोरथ, कामना । अभिषेक ) अभिषेक।
अभीष्म-वि० (सं० ) जो भीष्म या अभिहार-संज्ञा, पु. (सं० ) आक्रमण,
भीषण न हो। हमला, लूट-मार, जादू करना, चमत्कार
अभीषण-वि० (सं० ) जो भीषण या पूर्ण माया करना, डकेती।
भयानक न हो, अभयावह । "करि अभिहार के सभा को ज्ञान
प्रभुपाना-अ० क्रि० (सं० आह्वान ) लूट्यौ है," रत्नाकर। संज्ञा, भा० स्त्री० ---अभिहारी-माया,
हाथ पैर पटकना और ज़ोर-ज़ोर से सिर जादू करना, लूट मार ।
हिलाना भूत-प्रेतादि से पाविष्ट होना । अभिहिन-वि० (सं० ) कथित, कहा ।
दे० प्रान्ती. अबहाना। हुआ, उक्त, व्यक्त, प्रकाशित, प्रकटित ।
" एक होय तेहि उत्तर दीजै सूर उठी अभी-नि. वि. ( हि० अव+ही) इसी
अभुवानी"-भ्र० । क्षण, इसी समय, इसी वक्त, अबै ( दे०)। अभुक्त- वि० (सं० ) न खाया हुश्रा, बिना वि० (सं० अ-| भीः ) भय रहित । । वर्ता हुअा, अव्यवहृत, अप्रयुक्त, उपभोग न अभीक-वि० (सं०) निर्भय, निडर, . किया हुअा। निष्ठुर कठोर, उत्सुक. कठिन हृदय । अभुक्त-मूल-मूल नामक एक दृशा, यह अभीत--- वि० (सं० ) निर्भय, निडर, बड़े कड़े मूल होते हैं, इनमें पैदा होने साहसी, भीति रहित ।
वाले लड़के को लोग घर में नहीं रखते, अभीक्षण ---संज्ञा, पु० (सं० ) पुनः पुनः, कहते हैं तुलसीदास इन्हीं मूलों में पैदा बार-बार, भूयोभूयः ।
हुए थे । ज्येष्ठा नक्षत्र के अंत की दो घड़ियाँ अभीप्सित-वि० ( सं० ) अभीष्ट, वांछित, । तथा मूल नक्षत्र के आदि की दो घड़ियाँप्रिय, मनोभिलषित, इच्छित ।
गंडान्त । मा० श० को०-१७
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