Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ८००-८२४
विचार कर रहे थे कि अब मेरा आयुष्य शायद् नजदीक ही हो इतने में तो देवी सच्चायिका एवं मातुला आकर सूरिजी को वन्दन कर अर्ज की कि पूज्यवर ! अब आपका अायुष्य केवल एक मास का रहा है । आपने मुनि शान्तिसागर को सूरि पद दिया यह भी अच्छा ही किया है इत्यादि सूरिजी ने देवियों को अन्तिम धर्म लाभ दिया अतः वे वन्दन कर आदृश्य होगई:
सुवह सूरिजी ने प्राचार्य रत्नप्रभसूरि आदि श्रीसंघ को कहा कि मेरी श्रायुः नजदीक है। मेरी इच्छा अनशन करने का है। इसको सुनकर सब लोग उदास होगये और कहने लगे कि पूज्यवर ! आप हमारे शासन के स्तम्भ हैं हमारे शिर छत्र हैं । आपकी तन्दुरुस्ती अच्छी है ! श्रीसंघ यह नहीं चाहते कि
आप इस समय अनशन करें ! हां जब समय आवेगा तो श्रीसंघ स्वयं विचार करेगा। इस प्रकार नौ दिन निकल गये आखिर सूरिजी ने अनशन कर लिया और २१ दिन समाधि पूर्वक अराधना कर आप परम समाधि से स्वर्ग धाम पधार गये । इस अवसर पर सिंध के ही नहीं पर कई प्रान्तों के भावुकजन सूरिजी के दर्शनार्थ आये हुये थे उन सब के चेहरे पर ग्लानी छाई हुई थी! फिर भी निरानन्द होते हुए भी उन सबने करने योग्य सब क्रिया की और संघ अपने अपने नगरों की और चले गये ।
प्राचार्य सिद्धसूरि का सिंध भूमि पर महान उपकार हुआ है। अतः सूरिजी की चिर स्मृति के लिये आपके शरीर का अग्नि संस्कार हुआ था उस स्थान पर एक विशाल स्तम्भ बनाया और आश्वन शुक्ल नौमि के दिन जो सूरिजी के स्वर्गवास का दिन था वहां एक बड़ा मेला भरना मुकर्रर कर दिया कि सालो साल मेला भरता रहे।
___ आचार्य रत्नप्रभसूरि महान प्रतिभाशाली प्राचार्य हुए हैं आपने डामरेलपुर से कई ४०० मुनियों के परिवार से विचार कर सिन्ध भूमि में अपनी ज्ञान सूर्य की किरणों का प्रकाश चारों ओर डालते हुए जैनधर्म का खूब उद्योत किया कई अर्सा सिन्ध में विहारकर श्राप श्रीजी पंजाब की ओर पधारे छोटेबड़े ग्रामों में भ्रमन कर सावत्थी नगरी की ओर पधारे वहां के श्रीसंघ ने आपका सुन्दर स्वागत किया आपश्री का व्याख्यान हमेशा तात्विक एवंदार्शनिक विषय पर होता था षट दर्शन के तो आप पूर्ण अनुभवी थे जिस समय आप एक एक दर्शन का तत्व एवं मान्यता बतलाकर व्याख्यान करते थे तो अच्छे अच्छे पण्डित श्राश्चर्य में डुब जाते थे आचार्यश्री की प्रतिपादन शैली इतनी उत्तम थी कि बीच में किसी को तर्क करने का अवकाश ही नहीं मिलता था कारण आप स्वयं तर्क कर उसका समाधान कर देते थे । जिससे लोगों की मिथ्या धर्म से असूची और सत्य धर्म की ओर रुचि बढ़ जाती थी।
एक समय सूरिजी के व्याख्यान में एक क्षणक वादी ने आकर प्रश्न किया कि जिस नरक का श्राप भय बतलाते हैं और स्वर्ग का लालच देते हो कि जिससे जनता का विकाश की रुकावट हो जाती है ! वे नरक एवं स्वर्ग क्या वस्तु है और कहां पर है उन नक स्वर्ग को किसने देखी और कौन अनुभव कर पाया! इस विषय मैं क्या आप कुच्छ साबुती दे सकते हो ?
सूरिजी ने उत्तर दिया कि वस्तु का ज्ञान करने के लिये दो प्रकार के प्रमाण होते है एक प्रत्येक्ष दूसरा परोक्ष जो नजरों के सामने पदार्थ है । उसको प्रत्येक्ष देख सकते है पर जो दूर रहा हुआ पदार्थ है उसको जानने के लिये परोक्ष प्रमाण ही काम देता है । यदि कोई व्यक्ति सवाल करे कि एक सौ कौस पर नगर है वहां एक सुन्दर वडवृक्ष हैं परन्तु इसके लिये खुद नजरों से देखने वाला भी परोक्ष प्रमाण के अलावा क्या आचार्य रत्नप्रभसरि और क्षणकवादी ]
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