Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० १०३१-१०६०
उसको उसकी दृष्टि में निष्फल ज्ञात हुए । वह चल कर पुनः सिद्ध पुरुष के पास आया। उसकी करुणा पूर्ण प्रार्थना पर सिद्ध पुरुष ने एक नहीं पर दो विंदू और लगा दिये अब तो वह लक्षाधिपति बनगया। इस लक्षाधिपति की अवस्था में अवशिष्ठ रहे धर्म कार्य के दो घंटे भी रफूकर हो गये धन के मद में लोलुप बन गया । धर्म के प्रति उपेक्षा करने लगा। इतना ही नहीं पर उपकारी सिद्ध पुरुष के दर्शन करना भी सर्वथा भूल गया। एक दिन वह सिद्ध पुरुष बाहर परिभ्रमन करने के लिये उस गांव से रवाना हुआ इस समय नगर के सब लोग उसे पहुँचाने के लिये आये किन्तु वह भक्त जिसको लक्षाधिपति बनाया था कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुआ।
सिद्ध पुरुष इधर उधर घूमकर पुनः उस नगर में आया । स्वागत के लिये सब नगर निवासी सम्मुख गये पर बिन्दु बढ़ाने वाले सेठ का उस समय भी पता नहीं था । क्रमशः सिद्ध पुरुष अपने आश्रम में पहुँच गये । कई दिवस व्यतीत होगये पर उस नवीन लक्षाधिपति के दर्शन भी दुर्लभ होगये इससे सिद्ध पुरुष आश्चर्य चकित हुश्रा अवश्य किन्तु धन के अहमत्व का विचार कर सिद्ध पुरुष को विशेष नवीनता नहीं लगी। एक समय सिद्ध पुरुष भिक्षार्थ उस नगर की छोटी सी गली से गुजर रहा था कि सेठ की अकस्मात भेट होगई । धन के घमण्डी सेठ ने अपने मुंह पर कपड़ा डाल दिया और एक शब्द बोले बिना ही अपने चलने का क्रम प्रारम्भ रक्खा । सिद्ध पुरुष उसे अच्छी तरह से पहिचान गया अतः व्यंगमय शब्दों में बोला किसेठजी ! और बिन्दी की जरूत हो तो आश्रम में आजाना । सेठ तो धर्म कर्म को तिलाञ्जली देर तृष्णा का दास बन गया था अतः कार्य से निवृत्ति पाकर तुरत सिद्ध पुरुष के आश्रम में चला गया । सिद्ध पुरुष ने कहा-सेठजी । इस समय तुम्हारे पास कितना द्रव्य है । सेठने १०००: ० बड़े २ अंक लिख दिये । अंकों को इतने बड़े अक्षरों में लिखे कि नवीन शून्य लिखने के लिये भी हाथ में स्थान न रहा । सिद्ध ने कहा-~~सेठजी ! क्या किया जाय ? अब बिन्दी लिखने का भी हाथ में स्थान नहीं है । सेठ ने कहा-यदि
आगे स्थान नहीं तो क्या हुआ ? पृष्ठ भाग में तोजगह है उधर ही बिन्दी लगा दीजिये । उसके विशेषाग्रह से सिद्ध पुरुष ने पीछे बिंदी लगादी । बस, फिर तो था ही क्या ? स्वप्न की माया स्वप्नवत ही नष्ट होने लगी। थोड़े ही समय में सेठ अपनी मूल स्थिति पर आगया । केवल उसके पास उसकी मूल पुजी १) ही रही । अब उस पर हो अपना निर्वाह करने लगा । इधर इतने प्रपञ्चों एवं उपाधियों से मुक्त होने के कारण आठ घंटा समय धर्म कार्य के लिये भी मिलने लग गया । अब सिद्ध पुरुष के पास जाकर सेठ ने अर्ज की कि गुरुदेव । संसार को डुबाने एवं तारने की चाबी आपके पास में हैं पर जैप मेरे पर दया भाव लाकर बिंदिय लगाकर मेरे धर्म कर्म को छुड़वाया वैसे दूसरे का नियम न छुड़वाना । मुझे इस हात में ही
आनंद है । आठ घंटे धर्म कार्य के लिये तो मिलते हैं । इस बीच ही आसल ने प्रश्न किया-गुरुदेव । सिद्ध पुरुष इस प्रकार किसी को द्रव्य दे सकता है ?
गुरु महाराज ---आसल ! जैनधर्म एकान्तवाद को अपनाये हुए नहीं है। वह तो अनेकान्त वाद का परम अनुयायी है । यदि एकान्त ऐसा मान लिया जाय तो संसार में कोई दुखो एवं निर्धन रह ही नहीं सके और इसके साथ ही साथ सुकृत (पुण्य) दुष्कृत (पाप) के शुभाशुभ का फल भी नष्ट होजाय । पर ऐसा सबके लिये सम्भव नहीं है । सिद्ध पुरुषों का संयोग व ऐसे कोई दूसरे साधन तो पूर्वजन्म के सम्बन्ध से किंवा पुण्योदय से मनुष्यों के लिये निमित्त बन जाते हैं । जैन शास्त्रों में कारण, दो प्रकार के कहे हैं- एक धन पीपासुओं का धर्म
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