Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७७८-८३७]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
अस्तु, यहां पर तो हमने केवल एक सेठिया जाति का ही संक्षिप्त से हाल लिखा है और लिखने का मेरा उद्देश्य खास इतना ही है कि वि० सं ७९५ में प्राचार्य उदयप्रभसूरि ने भीन्नमाल में २४ मुख्य ब्राह्मणों को जैन बनाये थे उसी समय उनके साथ रोटी बेटी का व्यवहार प्रारंभ कर दिया गया था । जो वि० सं० ११०३ तक तो बराबर चलता रहा पर बाद में बेटी व्यवहार बन्द हो गया केवल भोजन व्यवहार ही चालु रहा बेटो व्यवहार किसी कारण से बन्द हुआ हो पर इससे महाजनसंघ को और सेठिया जाति को बड़ा भारी नुकसान हुआ कि सेठिया जाति सर्वत्र फैली हुई लाखों की संख्या में एक समृद्धिशाली जाति थी वह गिरती २ आज अंगुलियों के पैरवों पर गिने जितनी रह गई है इस जाति में आज तो लक्षाधिश तों खोजने पर भी नहीं मिलते हैं यदि है तो बहुत कम लोग हैं । इस जाति के लोग सर्वत्र फैल गये थे अब तो केवल गोडवाड, मारवाड़, मेवाड़ मालवे में तथा थोड़ी संख्या में अन्य प्रान्तों में भी होगा। इस जाति के कई लोग तो व्यापार करते हैं पर कई लोग मिठाई का धन्धा भी करते हैं जैसे जो किसी समय माताजी ( देवी) के प्रसाद बनाये करते थे गुंदोच के, घेवर आज भी भारत में बहुत मशहूर है । श्रोसवाल जैसी विशाल कोम में कन्या दुकाल और कन्याविक्रय का तांडवनृत्य होरहा है वैसा ही इस जाति में भी मौजूद होने से दिन ब दिन संख्या कम होती जा रही है इस जाति की विशेषता यह है कि जिस दिन से इस जाति ने जैनधर्म स्वीकार किया था उस दिन से आज पर्यन्त इस जाति के सब के सब लोग जैनधर्म श्रद्धा पूर्वक पालन करते हैं।
अब भी समय है कि ऐसी-ऐसी कम संख्या वाली जातियों को महाजनसंघ अपना के अपने साथ मिला लें तो इनका अस्तित्व टीका रह सकता है और महाजनसंघ की आयु भी बढ़ सकती है यदि संघ कुम्भः कर्णी निंद्रा में खर्राटे खेंचता ही रहेगा तो कुछ समय के बाद इन जातियों के नाम पुस्तकों के पृष्टों में ही दृष्टि गोचर होंगे।
समय की बलिहारी है कि हमारे पूर्वाचार्यों ने तो मांस मदिरादि व्यभिचार सेवन करने वालों की शुद्धि कर उनको संघ में शामिल कर लेते थे और संघ उसी दिन से उन नूतन जैनों के साथ रोटी बेटी का व्यवहार बड़े ही उत्साह के साथ कर लेता था । तब भाज हमारा यह दिन है कि हमारे सदृश आचार विचार वाले हमारे बिछुड़े हुए माइयों को भी हम अपने अंदर मिलाने के योग्य भी नहीं रहे हैं।
__ आज हमारे संघ में ऐसा कोई प्राभावशाली आचार्य नहीं रहा है कि चिरकाल से बिछुड़े हुए साधर्मी भाइयों को यह समझ कर कि आज हम वासक्षेप के विधि विधान से नये जैन बनाने की भावना से ही उनको शामिल कर सके । यदि हमारे सदृश पवित्र आचार व्यवहार वाले जिनके साथ हमारा बेटी व्यवहार था और आज भोजन व्यवहार है हम एक पंक्ति एवं एक थाली पर बैठ कर भोजन करते हैं उनके लिये ही इतनी संकीर्णता है तब कोई आचार्य पांच पच्चीस जाट माली राजपूतादि को प्रतिबोध देकर जैन बना लिया हो तो उनके साथ तो बेटी व्यवहार करे ही कौन इतना ही क्यों पर भोजन व्यव. हार भी शायद ही कर सकें। फिरतो इस महाजनसंघ के मृत्यु के दिन निकट भविष्य में हो इसमें संदेह ही क्या हो सकता है और इसका कारण भी प्रत्यक्ष है देखिये।
१-बाल विवाह से संतान का अभाव व विधवाओं का बढ़ना । २-वृद्ध विवाह से भी विधवाओं की संख्या में वृद्धि होती है ।
जहां भोजन व्यवहार है वहां बेटी व्यवहार
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