Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ७७८-८३७
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
ने कहा-क्या दही में भी जीव होते हैं ? तुम लोग तो दया का ढोंग करते हो । लेना हो तो लेलो वरन शीघ्र चले जाओ। इस पर धनपाल ने कहा यदि ऐसा ही हो तो आप प्रत्यक्ष में बतलाइये। मुनियों ने उसी दही में अलतो डलवाया कि सब जीव ऊपर आ गये । कई जीव तो उसको दृष्टीगोचर भी होने लगे अतः इसको देख कर धनपाल के दिल ने पलटा खाया। वह सोचने लगा कि जैनधर्म के ज्ञानियों का ज्ञान बहुत सूक्ष्म एवं विशाल है । दही जैसे पदार्थ में गुप्त जीवों की दया निमित्त भी पहीले से ही नियम बना लेनाकी तीन दिन उपरान्त का दही अभक्ष्य है; कितनी दूर दर्शिता है ? कहां दयामय पवित्र जैनधर्म और कहा पशुहिंसा. मय वैदिक धर्म।
कुछ ही क्षणों के पश्चात् धनपालने मुनियों से पूछा- आप कहा से आये और आपके गुरु कौन हैं ? मुनियों ने कहा-हम गुर्जर प्रान्त से आये हैं और आचार्य महेन्द्र सूरि के शिष्य धुरंधर बिद्वान् शोभनमुनि हमारे गुरु हैं। हम चैत्य के पास ही ठहरे हुए हैं, इतना कह कर मुनि चले गये भोजनादि से निवृत्त हो धनपाल शोभन मुनि के यहां गया। अपने ज्येष्ठ भ्राता को आता देख शोभन निने सामने जाकर उनका सत्कार किया और आधे आसन पर उनको बैठाया। धनपाल ने कहा आप धन्य हैं कि पवित्र जैनधर्म के
आश्रय से श्रात्म कल्याण कर रहे हैं। मैंने तो राजाभोज द्वारा मालवा प्रान्त में जैनश्रमणों का निहार वंद करवा कर महान अन्तराय कर्मोपार्जन किया है। न मालूम में उस पाप से कैसे मुक्त होऊंगा ? पिताश्री सर्वदेव और श्राप ने हमारे कुल रूप समुद्र में उत्पन्न हो कर हमारे कुल की कीर्ति को उज्वल बनाई है। व अपने कुल में केवल मैं ही ऐसा पापी जन्मा की पशुहिंसा रूप अधर्म में भी धर्म मान कर सत्यधर्म की अवगणना की है । हे महा भाग्यवान् मुनि ! अब आप मुझे ऐसा मार्ग बतलाइये कि मैं कृत पाप से मुक्त हो कुछ आत्म-कल्याण कर सकूँ ।
शोभन मुनिने धनपाल को अहिसाधर्म तथा देव गुरु धर्म के विषय में उपदेश दिया जि का धनपाल की आत्मा पर गहरा प्रभाव पड़ा। बाद में भगवान महावीर के चैत्य में जाकर धनपाल ने मनोहर शब्दों से भगवान् की स्तुति की तत्पश्चात् धनपाल अपने मकान पर गया ।
एक समय राजाभोज के साथ धनपाल महाकाल महादेव के मन्दिर में गया । महादेव को देखते ही वह नमस्कार नहीं करता हुआ एक गवाक्ष में जाकर बैठ गया । गजा भोज ने बुलाया तो वह द्वार के पास बैठ गया। राजा ने सविस्मय इसका कारण पूछा तो धनपाल ने कहा कि-महादेव के पास पार्वतीजी बैठी है भतः शर्म के मारे मैं वहां श्रा नहीं सका। जहां दम्पति एकान्त में बैठे हों वहां तीसरे का जाना अच्छा नहीं पर लज्जा ही का कार्य है।
राजा भोज-तो इतने दिन शंकर की पूजा करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आई ?
धनपाल-बालभाव के कारण लज्जा ज्ञात नहीं हुई। यदि आप अपनी रमणियों के साथ एकान्त में बैठे हों तो क्या हमारे जैसों से वहां आया जा सकता है ? दूसरा अन्य देवों का चरण मस्तक वगैरह पूजा जाता है तब शिवजी का लिंग अतः दोनों तरह से संकोच की ही बात है। - एक श्रृंगी (शंकर के सेवक ) की कृष मूर्ति देखकर राजा ने धनपाल से पूछा कि यह भंगी की मूर्ति दुर्बल क्यों है ? १२३६
तीन दिन के बाद दहीअत्रक्ष
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