Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य कक्कसूरि का जीवन 7
[ओसवाल सं० १३५२-१४११
उसे मुनित्व जीवन के परम पवित्र आचार विचार एवं महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व पर बहुत ही आश्चर्य हुआ। पादत्राणभाव में पैदल चलने के साधारण कष्टों के सिवाय अन्य २२ परिपहादि के कष्टों का उसे ज्ञान हुआ व आचार्यश्री के साथ प्रत्यक्षानुभव किया तब तो उसकी विस्मय जन्य कौतूहल के साथ ही साथ जिज्ञासा वृति भी बढ़ गई । समय पाकर आचार्यश्री से पूछने लगा-भगवन् ! आप तो श्रीसंघ के नायक हैं, बड़े बड़े राजा महाराजा एवं कोटाधीशों के गुरु हैं फिर, आप इस तरह साधारण दीनवृत्ति से निर्वाह कर इन दारुण दुःखों को व्यर्थ ही में क्यों सहन कर रहे हैं ?
सूरिजी-मोहन ! अभी तुम बालक हो । मुनित्य जीवन की चारित्रविषयक सूक्ष्म वृत्ति का तुम्हें ज्ञान नहीं हैं। साधुत्व जीवन के निर्मल आचार-व्यवहार से सर्वथा अनभिज्ञ हो । मोहन! हमारी, तुम्हारी सुख ऋद्धि की तो बात ही क्या पर नवनिधान के स्वामी अक्षय सम्पत्ति के मालिक चक्रवर्तियों ने भी अपनी सुख साहिबी को लात मार कर इस प्रकार के कष्टों (!) को सहन करना स्वीकार किया था। मोहन ! बाह्य दृष्टि से तुम्हें या अन्य किसी को यह कष्ट दीखता हो पर हम लोगों को तो तुम लोगों द्वारा देखे जाने वाले इन कष्टों में भी सौख्य का ही अनुभव होता है। जब तुम लोगों को कभी हजार दो हजार की कमाई का स्वर्णावसर प्राप्त होता हो और उसमें थोड़ा बहुत कष्ट भी सहन करना पड़ता हो तो क्या उस किञ्चित् कष्ट को देख प्रगादी की तरह उस अलभ्य अवसर को यों ही हाथ से जाने दोगे?
मोहन-नहीं गुरुदेव ! हस्तागत ऐसे अवसर को थोड़े कष्टों के लिये खोदेना तो अदूरदर्शिता ही है। हम लोग तो ऐसे समय में साधारण क्षुधापिपास के कष्टों को ही क्या पर जीवन की भीषण यातनाओं को भी विस्मृत कर जी जान से इस प्रकार के द्रव्योपार्जन में संलग्न हो जाते हैं । पर आचार्य देव ! उसमें तो हमको रुपयों पैसों का लोभ होता है । अतः थोड़ी देर का या चिरकाल का कष्टसहन करना भी हमें अनिवार्य हो जाता है पर आपको तो यावज्जीवन के इस दारुण कष्ट में क्या लोभ या लाभ है । जिसके कारण कि साक्षात् दीखने वाले दुःख को भी सुख समझते हैं।
सूरिजी-मोहन ! तुम्हारे रुपयों का लाभ तो क्षणिक आनन्द को देने वाला किञ्चित् पौद्गलिक सुख स्वरूप है पर हमको मिलने वाला लाभ तो शाश्वत तथा भव भवान्तरों के सुख के लिये भी पर्याप्त है।
मोहन--गुरुदेव ! ऐसा कौनसा अक्षय लाभ है, कृपा कर मुझे भी स्पष्टीकरण पूर्वक समझाइये । सूरिजी-मोहन ! क्या तुम भी उस लाभ को प्राप्त करने के उम्मेदवार हो ?
मोहन-आचार्य देव ! कौन हतभागी होगा कि लाभ का इच्छुक न रहता होगा ! फिर आपके द्वारा वर्णित किया जाने वाला लाभ तो अक्षय लाभ है फिर ऐसे लाभ को कौन नहीं चाहता होगा?
सूरिजी-मोहन ! जीव अनादि काल से जन्म, जरा, मरण रूप असह्य दुःखों का अनुभव कर रहा है। उन अपरिमित यातनाओं का अन्त करने वाली और अक्षय सुख को सहज ही प्राप्त कराने वाली यह भगवती दीना है । देखो 'देहदुक्खं महाफलं' अर्थात् सम्यग्दर्शन व ज्ञान के साथ इस शरीर का जितना दमन किया जाय उनना ही भविष्य के लिये अात्मिक सुख के अक्षय आनन्दता को प्राप्त कराने वाला होता है। इसी से पूर्वोपार्जित दुष्कर्मों की निर्जरा होती है और कर्मों की निर्जरा होना ही मोक्ष है अतः मुनिजन चारित्र जन्य कष्ट को भी सुख ही समझते हैं।
मोहन-सूरिजी के द्वारा कहे गये थोड़े से शब्दों में अपने जीवन के वास्तविक महत्व को समझ गया। उसके हृदय में दीक्षा लेने की भावना रूप वैराग्याङ्कर अङ्कुरित होगया । कष्टों को सहन करने का नवीनोत्साह
आगया । मार्ग में होने वाले पाद विहार जन्य कष्ट में भी आत्मिकानन्द की लहर लहराने लगी। उसे इस बात का अच्छी तरह से अनुभव होगया कि सुख दुःख आत्मिक परिणामों की जघन्योत्कृष्टता पर अवलम्बित है। उदाहरणार्थ-चक्रवर्ती महाराजाओं को पुष्प शय्या पर सोते हुए एक पुष्प कलि के अव्यवस्थित होने पर
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सुरीश्वरजी और मोहन
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