Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० १०३३-१०७४]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
धना कर देवी से द्रव्य यारा करना मुनासिब नहीं समझा । लाडुक, ने तो धर्म कार्य में संलग्न रह कर भविष्य को सुधारना
ह य बना लिया। ___एक समय योग तिष्णात एक योगी देनपट्टन नगर में आया। उसने अपने नाना प्रकार के भौतिक चमत्कारों से उक्त नगर निवासियों को अपनी ओर सहसा आकर्षित कर लिया । अन्ध श्रद्धालु जनसमाज उसका परम भक्त बन गया । क्रमशः कई दिनों के पश्चात् यकायक किसी प्रसङ्ग पर किसी विशेष व्यक्ति के द्वारा लाटुक की गार्हस्थ्य जीवन सम्बन्धी चिन्तनीय स्थिति विषयक सच्ची हकीकत योगी को ज्ञात हुई। उक्त वार्ता के मालूम होने पर योगी को लाडूक की निस्पृहता एवं निरीहतापर परम विस्मय हुआ। कारण अधिकांश नगर निवासी, चमत्कार प्रिय जन समुदाय उसकी ओर आकर्षित एवं आश्चर्यान्वित था पर लाडुक विचारणीय स्थिति का साधारण गृहस्थ होने पर भी मंत्र यंत्रादि की विशेष आशाओं से विलग-योगी के आश्चर्य का कारण ही था । बहुत दिनों की प्रतीक्षा के पश्चात् भी लादुक द्रव्य के लोभ से योगी के पास न
आया तब योगी ने स्वयं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये, जाने का निश्चय किया । क्रमशः लाडुक के पास आकर योगी कहने लगालाडुक ! किन्हीं हितैषी व्यक्तियों के द्वारा तुम्हारी वास्ताविक गृह स्थिति का पता चलने पर तुम्हारी निस्पृहता पर आश्चर्य तथा अज्ञानता पर दुःख हुआ अतः मैं स्वयं ही ( मेरे यहां तुम्हारे नहीं आने के कारण ) उपस्थित हुआ । लाडुक । तुम किसी तरह की चिन्ता मत करो । मैं तुम्हें एक शर्त पर एक ऐसा दारेद्रय विनाशक मंत्र बतलाऊंगा कि जिसके द्वारा तुम्हारा कोष ही सर्वदा के लिये अक्षय हो जाचमा । पर तुम्हें इस उपकार के बदले जैनधर्म को छोड़ कर हमारा धर्म स्वीकार करना होगा। योगी के उक्त सर्व बचनों को शान्ति पूर्वक श्रवण करते हुए मननशील लाडुक सोचने लगा-क्या मैं इस तुच्छ, क्षण विनाशी, चञ्चलचपला व चपललक्ष्मी के नगण्य प्रलोभन से अपने अमूल्य-आत्मीय धर्म क याग कर आत्मप्रतारण के दोष से दूषित होऊ ? नहीं, यह तो कभी हो ही नहीं सकता । जैन दर्शन में दुःख और सुख धन और निधनता को कर्मों का परिणाम कहा है। कर्म की मेख पर रेख मारने में तो अनन्त शाक्तिशाली तीर्थकर, चतुर्दिक विजयी चक्रवर्ती भी समर्थ नहीं । कर्मों के शुभाशुभ विपाकोदय को न्यूनाधिक करने में या रद्दोबद्दल करने में शक्तिशालियों का शक्ति शन्त्र भी कुण्ठित हो जाता है तो मिथ्यात्व क्रूर परिणामों वाले कुत्सित रंग में रक्त योगी मेरे कर्मों को अन्यथा करने में कैसे समर्थ होसकता है ? फिर भी लाडुक अपनी गृहभार्या की कसौटी या धर्म परीक्षा के लिये योगी कथित सकल मंत्र प्रयोगी एवं धर्म बलिदान रूप वार्ता को कहकर उनसे उचित परामर्श पाने के निमित्त पूलने लगा-भद्रे ! आर्थिक संकट निवारक योगी का आज स्वर्णापम संयोग हुआ है। यदि कहो तो उनके धर्म को अपनाकर अक्षयनिधि रूप मन्त्र प्राप्त कर लिया जाय ।
पत्नी-क्या पैसे जैसे क्षणिक द्रव्य के लिये भी पाप धर्म को तिलाञ्जली देने के लिये उद्यत होगये ? मैं तो ऐसे पातक प्रयोगों का अनुमोदन करने मात्र के लिये तत्पर नहीं हूँ। ये सब भौतिक साधन भौतिक सुख के साधन अवश्य हैं तथापि धर्म रूप कल्पवृक्षवत् अक्षय सुख के दातार नहीं। ककर तुल्य द्रव्य निमित्त चिन्तामणि रत्न रूप धर्म का त्याग करना मेरी दृष्टि से समीचीन नहीं।
__ अपने ही विचारों के अनुरूप दृढ़ धर्म विचार या अपने से भी दो कदम आगे बढ़े हुए धर्मानुराग को देख लाडुक को बहुत ही सन्तोष एवं आत्मिकानन्द का अनुभव होने लगा। वह रह २ कर पतिव्रत धर्म परायण पत्नी के गुणों पर अपने आपको गौरवशील समझने लग गया। पत्नी की दृढ़ता को देख पुत्रों की परीक्षा निमित्त लाडुक, पुत्रों को समझाने लगा-प्रिय पुत्रों ! गार्हस्थ्य जीवन सम्बन्धी अनेक जटिलता पूर्ण समस्याओं को सुलझाने के लिये आज स्वोपम योगी प्रदत्त अक्षय कोष प्राप्ति का अनुपम संयोग प्राप्त हुआ है। यदि तुम लोगों की इच्छा हो तो केवल धर्म परिवर्तन रूप साधारण कार्य से ही उक्त कार्य साध्य किया
जा सकता है। Jain Edu B rnational
For Private & Pers. योगी का चमत्कार और लाडुक की धर्म दृढ़ता org
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