Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ११२८-११७४ ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
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३७-आचार्य देवगुप्तसूरि ६०१
३७-आचार्य ककसूरि ३८-आचार्य सिद्धसूरि (७) ६३१
३८-आचार्य सर्वदेवसूरि (७) ५६-आचार्य ककसूरि ६६०
३६-आचार्य नन्नप्रभसूरि ४०-आचार्य देवगुप्तसूरि ६८०
४०-श्राचार्य ककसूरि ४१-आचार्य सिद्धसूरि (८) ७२४
४१-श्राचार्य सर्वदेवसूरि (5) ४२-आचार्य कक्कसूरि ७७८
४२--श्राचार्य नन्नप्रभसूरि ४३-श्राचार्य देवगुप्तसूरि ८३७
४३-प्राचार्य ककसूरि ४४-श्राचार्य सिद्धसूरि (९) ८६१
४४-आचार्य सर्वदेवसूरि (६) ४५-प्राचार्य ककसूरि ६५२
४५--प्राचार्य नन्नप्रभसूरि ४६-आचार्य देवगुप्तसूरि १०११
४६-आचार्य ककसूरि ४७-आचार्य सिद्धसूरि (१०) १०३३
४७-आचार्य सर्वदेवरि (१०) ४८-आचार्य ककसूरि १०७४
४८-प्राचार्य नन्नप्रभसूरि ४६ - आचार्य देवगुप्तसूरि ११०८
४६-श्राचार्य कक्कसूरि ५०-आचार्य सिद्धसूरि (११) ११२८
५०-श्राचार्य सर्वदेवसूरि (११) कोरंटगच्छ के आचार्यों में ४५ वें पट्ट के पूर्व हुए प्राचार्यों ने अजैनों को जैन बनाए उनको तो वे पूर्व स्थापित उपकेशवंश में ही शामिल मिलाते गये पर ४५वें पट्टधर प्राचार्य से उनके बनाये अजैनों को जैन, जिनकी आगे चल कर जातियां व नाम संस्करण हुए वे जातियां प्रायः अपने गच्छ के नाम से ही रखी गई थी उन जातियों के विषय में ही यहां लिखा जाता है।
कोरंटगच्छ के अन्तिम श्रीपूज्य सर्वदेवसूरिजी जिनका प्रसिद्ध नाम अजीतसिंह था वे विक्रम संवत् १६०० के आस पास बीकानेर पधारे थे वहां पर उपकेशगच्छ के श्राचार्य ककसूरिजी विद्यमान थे उन्होंने कोरंटगच्छ के श्रावकों को तथा श्रीसंघ को उपदेश देकर आगत श्रीपूज्य का अच्छा स्वागत सॉभेला करवाया
और उनको उपकेशगच्छ के उपाश्रय में ही ठहराया । दोनों गच्छ के श्रीपूज्य एक ही स्थान पर ठहरे इससे पाया जाता है कि उनके आपस में अच्छा मेल मिलाप था । वे कई दिन तक दोनों बीकानेर में श्रीपूज्यजी ठहरे और आपस में बार्तालाप करते रहे जब कोरंटगच्छ के श्रीपूज्य विदा होने लगे तब उनके पास कोरंट गच्छाचार्यों द्वारा प्रतिबोध पाये हुए ३६ जातियों की उत्पत्ति एवं उनकी वंशावली की एक बड़ी बही थी, जो उनके पीछे कोई योग्य शिष्य न होने से उपकेश गच्छाचार्य कक्कसूरिजी की सेवा में भेंट करदी यह उनकी दोघं दृष्टि ही तो थी।
वह वही यतिवर्य माणकसुन्दरजी के पास थी। वि० सं० १६७४ का मेरा चातुर्मास जोधपुर में था। उस समय यतिवर्य लाभसुन्दरजी रायपुर से, माणकसुन्दरजी राजलदेसर से, और यतिवर्य चन्द्रसुन्दरजी आदि जोधपुर आये थे और उनसे गच्छ संबंधी वार्तालाप हुआ था। कई प्राचीन पट्टावलियां राजाओं, बादशाहों के मिले फरमान, पट्टे, सनदें वगैरह मुझे भी दिखाये उनके अन्दर कोरंटगच्छाचार्यों की दी हुई वह बही भी थी यद्यपि उस समय इस विषय पर मेरी इतनी रुचि नहीं थी तथापि कोई भी नई बात नोट करलेने की मेरी शुरु से ही श्रादत थी तदनुसार मैंने उनके अन्योन्य लेखों के साथ कोरंटगच्छाचार्यों के प्रतिबोधक श्रावकों की जातियों की उत्पत्ति वगैरह की नोंध मेरी नोंध पुस्तक में करली तदनुसार मैं यहां पर उन जातियों
की उत्पत्ति लिख रहा हूँ। Jain E१४६.२rernational
कोरंटगच्छाचार्यों की बही..y.org
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