Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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- भूल सुधार
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पर ही अत्याचार गुजारे थे पर जैनों पर नहीं अर्थात् जैनों पर जुतम करने का प्रमाण नहीं मिलता है । इससे पाया जाता है कि अभी उन लोगों की शोधखोज अधूरी है। अतः इस विषय में और भी उद्यम करना चाहिये।
पृष्ठ १७४ पर मैंने उपकेशवंश वालों के साथ ब्राह्मणों का सम्बन्ध क्यों नहीं ? तथा कब और किस कारण से टूट गया ? इस विषय में "श्रीगाली वाणियों का ज्ञाति भेद" नामक पुस्तक के अन्दर से दो श्लोक उद्धृत करके ऊहाड़ मंत्री की कथा लिखी और प्रमाण के लिये उक्त पुस्तक के अनुसार समरादित्य कथा जो
आचार्य हरिभद्रसूरि की बनाई हुई है। का नाम लिखा था और जैसे समरादित्य कथा पर से कई प्राचार्यों ने कथा का सार संस्कृत में लिखा वैसे किसी ने प्रस्तुत कथा पर से समरादित्य चरित्र भी लिखा होगा पर श्री अगरचन्दजी नाहटा के एक लेख से ज्ञात हुआ कि श्री शोभाग्यनन्दसूरि ने स्वरचित विमल चरित्र में उपकेश जाति की ख्यात लिख कर उसके अन्त में लिखा है कि "इति समरादित्य चरित्रानुसारेण उपकेश जाति की ख्यात" इस लेख से पाया जाता है कि समरादित्य चरित्र करने उपकेश ज्ञाति की ख्यात लिखी और उस ख्यात को शोभाग्यनन्दसूरि ने अपने विमलचरित्र में उद्धृत की है। अतः मेरा लिखा प्रमाण तो यथार्थ ही है पर उसके प्रमाण के लिये नाम का फरक अवश्य है जो समरादित्य कथा और सार के स्थान पर समरादित्य चरित्र होना चाहिये था । अब पाठक ऐसा ही समझे । और दो श्लोकों को मैं पहले का पीछे और पीछे का पहले छप जाना उस ग्रन्थकार की ही गलती है । जिसको भी सुधार कर पढ़े।
- पृष्ठ १६५ पर कोटा राज के अन्तर्गत अटरू नाम ग्राम में भैसाशाह के बनाये मन्दिर में सं०५०८ के शिलालेख के विषय में मैंने उस शिलालेख का मिलना मुन्शी देवीप्रसादजी का नाम लिख दिया था कारण मैंने कोई २० वर्ष पूर्व मुन्शी देवीप्रसादजी की लिखी 'राजपूताना की शोध खोज नामक पुस्तक पढ़कर नोट बुक में नोंध करलो थी जब प्रस्तुत पुस्तक लिखी उसमें उस शिलालेख को मुन्शी देवीप्रसादजी की शोध खोज से मिला लिख दिया । परन्तु श्री अगरचन्दजी नाहटा के लेख से ज्ञात हुआ कि उस शिलालेख में सं०५०८ के साथ चैत्र सुद ५ मंगलवार की मिति भी खुदी हुई है और वह शिलालेख मुन्शी देवीप्रसादजी की शोघ से नहीं पर पण्डित रामकरणजी की शोध से मिला था यदि यह बात ठीक है तो पाठक उस लेख को मुन्शी देवीप्रसादजी की शोध खोज । नहीं पर पण्डित रामकरणजी की शोध खोज से मिला समझे। पर शिलालेख का होना प्रमाणित है।
___ पृष्ठ १६२ पर राजकोष्टागर गोत्र के विषय में मैंने लिखा था कि आचार्य बप्पभट्टिसूरि ने गोपगिरिग्वालियर के राजा श्राम को प्रतिबोध देकर जैन बनाया उसके एक राणी व्यवहारिया कुलोत्पन्न भी थी उसकी संतान को विशाद ओसवंश में मिलादी उन्होंने राज के कोठार का काम किया जिससे उसकी जाति राज कोष्टागर अर्थात् राज कोठारी हुई जो अद्यावधि विद्यमान है । इसी राज कोठारी जाति में विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में स्वनाम धन्य कम्माशाह हुअा उसने तीर्थ श्री शत्रुञ्जय का सोलहवाँ उद्धार करवाया था जिसका शिलालेखा उस समय का खुदवाया हुआ आज भी मौजूद है जिसका श्लोक मैंने यथास्थान दे भी दिया आगे के श्लोकों में कम्र्माशाह के पूर्वजों की नामावली भी दी है वे श्लोक यहाँ पर लिख दिये जाते हैं। श्री सारंगदेव नाम तत्पुत्रोरामदेव नामाऽभूत । लक्ष्मीसिंह पुत्रो (बस) तत्पुत्रो भुवनपाल ख्यः ॥१०॥ श्री भोजपुत्रो....... "रसिंहाख्य एव तत्पुत्रः । ताक स्तत्पुत्रो वरसिंह स्तत्सु................॥११।। तत्पुत्र स्तोलाख्यः पत्नीतस्य ( ) प्रभूतकुन्ज जाता। तारादेऽपर नाम्नी लीलू पुण्य प्रभापूर्णा ॥१२॥ तत्कुक्षि समुद्भूताः षट् पुत्र (:) कल्प पादपा कारा ।। धर्मानुष्ठान पराः श्रीवन्तः श्रीकृतो ऽन्येषाम् ।।१३।। प्रथमोर (ला) ख्वसुतः सम्यक्त्वोयोत कारका कामम् । श्रीचित्रकूट नगरे प्रासादः कारितो येन ||१४||
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