Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

View full book text
Previous | Next

Page 837
________________ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास ] [ मुख्य २ घटनाओं का समय मेरी नोटबुक की जानने योग्य बातें १ माण्डवगढ़ का मन्त्री पेथड़ ने तीर्थ श्रीशत्रुञ्जयादि का संघ निकला उस समय रास्ते में चलता हुआ जिस प्राम में जैन मन्दिर की जरूरत थी तथा किसी ग्राम नगर के संघ ने आकर कहा कि हमारे ग्राम में मन्दिर की आवश्यकता है तो मन्त्रीजी ने वहीं मन्दिर की नींव डलवादी जिसमें कतिपय नाम यहाँ दर्ज कर दिये जाते हैं। १ शत्रु | १७ नागपुर ३३ दशपुर ४८ आघाटपुर २ गिरनार तीर्थ पर १८ वटप्रद ३४ पाशुनगर ४६ नगरी३ जुनागढ़ शहर में - १६ सोपार पट्टण ३५ राठगनर ५० वागणपुर ४ घोलकां बंदर में २० चारोप नगर ३६ हस्तनापुर ५१ शिवपुरी ५वणथली २१ रत्नपुर में ३७ देपालपुर ५२ सोनाई ६ ऊकारपुर में २२ कारोड़ नगर ३८ गोकलपुर ५३ पद्यावती ७ वर्द्धमानपुर में २३ कदहर नगर ३६ जयसिंहपुर ५४ चन्द्रावती ८ शरदापाटण २४ चन्द्रावती ३० पाटण ५५ आबुदाचल १ तारापुर २५ चित्रकोट ४१ करणावती ५२ केसरियापट्टण १० प्रभावनी पाटण २६ चिखलपुर ४२ खम्भात ५७ जंगालु ११.सोमेशपट्टण २७ जैतलपुर ४८ उपकेशपुर ४३ वडनगर १२.बाँकानेर में २८ विहार नगर ४६ जाबलीपुर ४३ रनपुर ५० वृद्धपुर १३ गन्धार बन्दर २४ उज्जैन नगरी ४४ वीरपुर ५१ पालिकापुरी १४ धारा नगरी ३० माण्डवगढ़ | ४५ मथुरा ५२ नारदपुरी १५ नागदा नगर ३१ जलंधर ४६ जोगनीपुर ५३ पोतनपुर १६ नासिक | ३२ श्वेतवद्ध 1 ४७ शोरीपुर ५४ सारंगपुर इनके अलावा भी कई स्थानों में मन्दिर बनाया जिसकी संख्या ८४ का उल्लेख मिलता है इससे उस समय के लोगों की धर्म भावना का पता लग सकता है। २ शाह पेथड़ का पुत्र झांझण ने शत्रुञ्जय पर एक मन्दिर बनाकर उस पर सुवर्णपत्रों की खोली सम्पूर्ण मन्दिर के शिखर तक चढ़ादी यह सुवर्ण मन्दिर ही कहलाता था। ३ श्रीशत्रुञ्जय तीर्थ का उद्धार जावड़ पारवाड़ के बाद बहाड मंत्री का उद्धार तक करीब एक हजार वर्ष में राजा महाराजा और सेठ साहूकारों का संत्रों के अलावा इतर जातियों के भी सैकड़ों संघ आये और यात्रा की जैसे १७०० वार भावसारों के संघ श्राकर तीर्थ की यात्रा की १५०० वार क्षत्रियों के . .. १५०० वार:ब्रह्मणों के ६०० लाडवा फणवीरों , १५६४ For Private & Personal Use Only aryanvr Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 835 836 837 838 839 840 841 842