Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

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Page 786
________________ जैन मूर्तियों पर के शिलालेख ] [ओसवाल सं० १५२८-१५७४ x मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएँ करवाई इत्यादि और विक्रय सं० ७१५ से तो प्रत्येक आचार्य अपने शासन काल में हुए कार्य की नोंध कर ही लेते थे इतना ही क्यों पर श्रावकों की वंशावलियां भी लिखना प्रारम्भ हो गया था। इस प्रकार दीर्घ दृष्टि से प्रारम्भ किया हा कार्य का फन यह हुआ कि मन्दिर मर्तियां और ज्ञान भण्डारों के नष्ट भ्रष्ट होजाने पर भी हमारे भाचार्य एवं श्राद्ध वर्ग का कितना ही इतिहास सुरक्षित रह सका। और उस साहित्य के भाधार पर आज हम जैनाचार्य एवं उनके भक्त भावकों का इतिहास तैयार कर सकते हैं। इतना ही क्यों पर मैंने इस प्रन्थ में प्रत्येक आचार्य के जीवन के अन्त में भावुकों की दीक्षाएँ, श्रावकों के बनाये मन्दिर एवं मूर्तियों की प्रतिष्टाएँ, तीर्थों के संघ, वीरों की वीरता, दुष्काल में करोड़ों का द्रव्य व्यय कर देशवासी भाइयों एवं पशुओं के प्राण बचाने वालों की नामावली तथा फई जनोपयोगी कार्य जैसे-तालाब, कुँए, वापियां, धर्मशलाएँ वगैरह बनाने वालों की शुभ नामावली दे आये हैं। उक्त साहित्य के अलावा वर्तमान पुरातत्व की शोघ खोज से तथा वर्तमान में विद्यमान मन्दिर मूर्तियों के शिलालेख मिले हैं जिनको शान प्रेमियों ने मुद्रित भी करवा दिये हैं। उन मुद्रित पुस्तकों में भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के प्राचार्यों के करकमलों से करवाई प्रतिष्ठाओं के शिलालेख यहाँ दर्ज कर दिये जाते है। पाठक पढ़कर कम से कम अनुमोदन तो अवश्य करें१-"वरिस सएसु अ णवसु, अठारह समग्गलेसु चेतम्मि । णक्खते बिहुहथे बुहदारे, धवल बीअाए ॥१६॥" तेस सिरि कक्कुरणं जिणस्स, देवस्स दुरियाणिदलणं । कराविश्यं अचलमिमं भवणं भत्तीए सुइ जण्यं ॥२२॥ अप्पि अमेअं भवणं सिद्धस्स धणेसरस्य गच्छमि०। बाबू पूर्ण लेखांक ६४५ ___ मारवाड़ में यह शिलालेख सबसे प्राचीन है घटियाला ग्राम से मिला है। इस शिलालेख में प्रतिहार कक्व ने जिनराज की भक्ति से प्रेरित हो मन्दिर बनाकर धनेश्वर गच्छवालों को सुपुर्द किया लिखा है । २-मारवाड़ के गोड़वाद प्रान्त में हथुड़ी नाम की एक प्राचीन नगरी थी। वहाँ पर राष्ट्रकूट (राठौर) राजाओं का राज्य था और वे राजा प्रायः सब जैन धर्म के उपासक थे जिसमें हरिवर्मन का पुत्र विदग्धराज ने आचार्य केशवसूरि की सन्तान में वासुदेवाचार्य के उपदेश से वि० सं० १७३ में जिनराज का मन्दिर बनवाया था जिसका बड़ा शिलालेख बीजापुर के पास में मिला था वह बहुत विस्तृत है। उस लेख में विदग्धराज के अलावा आपके उत्तराधिकारी मम्मट वि० सं० ६६६ में उस जैन मन्दिर को कुछ दान दिया है । वह भी शिलालेख में लिखा है । तथा मम्मट का पुत्र धवल ने वि० सं० १०५३ में अपने पितामह के मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया था जिसका उल्लेख भी प्रस्तुत शिलालेख में है उस शिलालेख का कुछ अंश यहाँ दे दिया जाता है। _ "रिपु वधु बदनेन्दु हृतयुतिः समुदपादि विदग्धनृप स्ततः ।। ५॥" स्वाचार्यो रुचिरवाच (नैर्वा ) सुदेवाभिधानै-र्योधं नीसो दिनकर करीर जन्माकरोव । पूर्व जैनं निजमिव यशोंऽकारयद्धस्तिकुंडयां । रम्यं हर्म्यगुरुहिमगिरेः शृङ्गाशृङ्गा रहरी ।। ६ ।। राम गिरिनन्द कलिते विक्रम काले गतेतु शुचिमासे श्रीमद्बलभद्र गुरोविदग्धराजेन दतमिदम् ।। नवसुशतेषु गतेषु तु षण्णवतीसमधिकेषु माघस्य कृष्णकादश्यामिह समर्थितं मम्मट नृपेण ॥ इत्यादि लेख बहुत बड़ा है । श्रीमान् पाबू पूर्णचन्द्रजी नाहर के जैन लेख संग्रह प्रथम खण्ड पृ० २३४ में मुद्रित हो चुका है। उपकेशगच्छाचार्यों द्वारा मन्दिर मूर्तिया की प्रतिष्ठी .conal use only X Jain EMS ५३ www.jamelibrary.org

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