Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ श्रोसवाल सं० १५२८-१५७४
शुरु किया । बस ! उसी दिन से इनका पतन प्रारम्भ हुआ । क्रमशः आज जो दशा हुई है वह सबके सामने विद्यमान है मैं तो आज भी शासनदेव से प्रार्थना करता हूँ कि प्रत्येक जातियाँ वाले अपने-अपने परमोपकारी पुरुषों के गुणों का स्मरण कर उनके प्रति पूज्य भाव रखेंगे तो वह दिन दूर नहीं कि पुनः पूर्वावस्था का अनुभव करने लग जायँ ।
हम ऊपर लिख आए हैं कि कोरंट गच्छाचार्यों का विशेष विहार अर्बुदाचल के आस पास के प्रदेश हुआ करता था जिसमें आचार्य नन्नप्रभसूरि तो इतने प्रभाविक आचार्य हुए कि उन्होंने अपने बिहार क्षेत्र को जैनमय बना दिया था जिसमें अधिक लोग राजपूत ही थे । आचार्यश्री को इतनी सफलता मिलने का मुख्य कारण एक तो उस समय भारत में म्लेच्छ लोगों का क्रूरता पूर्वक आक्रमण हुआ करते थे जिसके मारे राजपूत लोगों की बड़ी दुर्दशा हो रही थी । वे इधर से उधर और उधर से इधर जान बचाते हुए भटकते फिरते थे । दूसरा कारण उस समय जैन समाज की बागडोर जैनाचायों के ही हस्तगत थी वे किसी को भी उपदेश देकर जैन बना लेते तो उनके इशारे मात्र | ही महाजन संघ उनको अनेक प्रकार से मदद कर उसी समय से सारा जैन समाज उनके साथ रोटी बेटी का व्यवहार चालू कर देता था । उस समय महाजन संघ के हाथ में • एक ओर तो राज तंत्र था और दूसरी ओर था व्यापार । श्रतः नये जैन बनने वाले कितने ही मनुष्य क्यों न हो पर उनको योग्यता के अनुसार काम में लगा ही देते थे । महाजन संघ की इस उदारता का भी जन साधारण पर कम प्रभाव नहीं पड़ता था । अज्ञान जनता धर्म की अपेक्षा अपनी सुविधा का पहले विचार करती है जब उनको इच्छा के अनुसार सुविधाएं मिल जाती थी तब धर्मों में अहिंसा परमोधर्म जो सब में प्रधान है, स्वीकार करने में दूसरा विचार ही नहीं करती थी । यही कारण है कि उन आचार्यों को अपने कार्यों में सर्वत्र सफलता मिलती जाती थी ।
आचार्य नन्नप्रभरि ने वि० सं० १०१३ के आस पास अर्बुदाचल के समीप विहार कर बहुत से राजपूतों को जैनधर्म की दीक्षा दी उनमें मुख्य पुरुष राव धंधल थे । वे चौहान राजपूत थे उनके पुत्र सुरजन और सुरजन के पुत्र संगण था वहां से वे व्यापार करने लग गया था सांगण के पुत्र बोहित्य हुआ । बोहित्य पर कुलदेवी की पूर्ण कृपा थी जिससे उसके एक तरफ तो सन्तान और दूसरी तरफ धन धान्य की वृद्धि होती गई वह इतनी कि बोहित्य ने चन्द्रावती में शासनावीश भगवान् महावीर का मंदिर बनाया तथा श्रीशत्रुञ्जय, गिरनारादि तीर्थों की यात्रार्थ विराट् संघ निकाला और चतुर्विध श्रीसंघ को यात्रा करवा कर पहरावगी में सुवर्ण मुद्राएं सुवर्ण थाल में रख कर दो याचकों को तो इतना दान दिया कि उनके घरों से दारिद्र चोरों की भांति भाग छूटा इत्यादि । बोहित्य ने अपने न्यायोपार्जित लक्ष्मी में से सवा करोड़ द्रव्य पूर्वोक्त शुभ कार्यों में व्यय किया । बोहित्य इतना नामी पुरुष हुआ कि आपके पश्चात् आपके नाम की स्मृति का सूचक बोत्थरा नाम से ओलखाने लगी । फिर तो बोहित्य की सन्तान इतनी फूली फली कि इनके अन्दर ज्यों ज्यों नामांकित पुरुष होते गये त्यों त्यों उनके नाम की शाखाएं भी निकलती गई। जैसे बोत्थरा, बच्छराज के नाम पर बच्छावत् शाखा जिसमें कर्मचंद बच्छावत बड़ा ही मशहूर हुआ। इसी प्रकार फोफलिया - मुकिस वगैरह कई शाखाएं निकलीं ।
इसी प्रकार कोरंटगच्छ्राचाय्यों में ४५ वें पट्ट पर नन्नप्रभसूरि और ४६ वें पट्ट पर ककसूरि और ४७ वें पट्ट पर सर्वदेवसूरि और ४८ वें पट्टपर पुनः श्रीनन्नप्रभसूरि नाम के आचार्य भी बड़े ही प्रतिभाशाली हुए हैं उन्होंने भी बहुत से अजैनों को जैन बना कर महाजन संघ की खूब वृद्धि की थी और उन प्रतिबोधित श्रावकों के कई-कई कारणों से जातियां बन कर उनके नाम संस्करण हो गये जो आज भी विद्यमान हैं जैसे घाड़ीवाल रातड़िया, संखलेचा और बोथरों की उत्पत्ति ऊपर लिख आए हैं यदि इसी प्रकार शेष जातियों की उत्पत्ति लिखी जाय तो ग्रन्थ बहुत बढ़ जाने का भय रहता है । अतः मैं यह खास मुद्दा की बात ही लिख देता हूँ । Jain कोरंटगच्छ के श्राचार्यों का विहार
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