Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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प्राचार्य कक्करि का जीवन ]
[ोसवाल सं० १४७४-१५०८
बाहिर की वस्तु नहीं थी। केवल बुरी संगति के कारण दया पर पर्दा पड़ गया था सो आचार्यश्री के उपदेश से वह भी दूर होगया । उन सैनिकों के प्रमुख राव आभड़ ने कहा-गुरुदेव ! आपका कहना अक्षरांश सत्य है और हम भी आज से ही शिकार और मांस, मदिरा का त्याग करते हैं । हम ही क्या ? पर हमारी संतान परम्परा भी अद्य-प्रभृति कभी भी मांस मदिरा का स्पर्श नहीं करेगी। राव आभड़ के सुदृढ़ वचनों को सुन कर सूरिजी ने कहा-रावजी ! मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। मुझे इतनी उम्मेद नहीं थी कि आप मेरा थोड़ा सा उपदेश श्रवण करके ही इस प्रकार प्रतिज्ञा कर लेंगे । खैर इस प्रतिज्ञा पालन के लिये कुसंगति का त्याग कर सुसंगति में रहना चाहिये।
रावजी ! आप जानते हो कि यह मानव जन्म बड़ी ही कठिनाइयों से मिलता है । आत्म-कल्याण के लिये खास कर यह ही उपयोगी है। सिवाय मनुष्य-भव के अन्य भवों में यात्म कल्याण सम्भव नहीं है अतः श्रापका भी कर्तव्य है कि शाप लोग सन्मार्ग की ओर प्रवृत्ति कर आत्म-साधन करें।
रावजी की लूरिजी पर इतनी श्रद्धा होगई कि वे आचार्यश्री की सेवा से बिलग रहना ही नहीं चाहते थे। उनके हृदय में यह बात अच्छी तरह से ठस गई कि सूरिजी निस्पृही और परोपकारी महात्मा हैं । इनका कहना निस्वार्थ भाव से हमारे हित के लिये ही होता है अतः रावजी ने कहा-गुरुदेव ! हम अज्ञानी लोग आत्म-कल्याण के कार्यों में समझते ही क्या हैं ? हमारा विश्वास तो आप पर है । अतः आप बतलावें वही करने को हरा यार हैं । सूरिजी ने कहा-आप वीतराग-प्रणीत जैन धर्म को स्वीकार कर इसकी आराधना करें जिससे आप लोगों का शीघ्र ही कल्याण हो । रावजी ने सूरिजी का उक्त कथन सहर्ष स्वीकार कर लिया
और नगर में आकर करीब तीन सौ श्री पुरुषों ने सूरिजी से वाल-क्षेप पूर्वक जैनधर्म को स्वीकार कर लिया। उसी दिन से राव आभड़ ग्रादि क्षत्रियवर्ग महाजन संघ में समिलित हो गये और उनके साथ सब तरह का सम्बन्ध प्रारम्भ होगया। रावजी के दिल में बड़ा ही उत्साह था। वे सूरिजी के व्याख्यान का प्रतिदिन बिना लंघन के लाभ लेते थे और धमें कार्य में हमेशा तत्पर रहते थे।
एक दिन सूरिजी ने अपने व्याख्यान में मन्दिर बनवाने का वर्णन इस प्रकार किया कि एक नगर देरासर या कम से कम घर देरासर बनवाना तो श्रावक का कर्तव्य ही है। सकल जीवों के हितार्थ नगर देरासर बनवाना तो श्रावक के लिये परमावश्यक ही है पर इतना समागे न हो तो घर देरासर बनावाने में तो आगे-पीछे करना ही नहीं चाहिये । आचार्यश्री के उक्त उपदेश ने सब लोगों पर बहुत ही प्रभाव डाला पर राव श्रामड़ पर तो उसका आशातीत प्रभाव पड़ा । उसने तत्काल ही घर देरासर बनवाने का निर्णय कर लिया। जब घर देरासर के लिये नींव खोदी तो भाग्यवशात् भूमि से अक्षय निधान मिल गया। बस फिर तो था ही क्या ? रावजी की श्रद्धा धर्म पर और भी दृढ़ होगई और उनका उत्साह द्विगुणित हो गया। जब रावजी ने आकर सब हाल गुरु महाराज से कहा तो सूरिजी ने प्रसन्नता के साथ में उनके उत्साह को बढ़ाते हुए कहा-रावजी ! आप परम भाग्यशाली हैं। यह सब धर्म का ही प्रताप है। धर्म में ही मनुष्य का अभ्युदय होता है। आपको जो निधान मिला है यह तो एक साधारण सी बात है पर धर्म से जन्म, जरा, मरण के भयंकर दुःख भी सहसा मिट जाते हैं और अक्षय सुख की प्राप्ति हो जाती है। राव आभड़ ने घर देरासर के सिवाय नगर में चिन्तामणि पार्श्वनाथ का एक विशाल मन्दिर बनवाना भी प्रारम्भ किया । चातुर्मास के पश्चात् ही धर्म के रंग में रंगे हुए राव आभड़ ने शत्रुनय की यात्रा के लिये एक मिराट् संघ निकाला। संत्र पतित्व की माला को धारण कर सूरिजी के साथ में राव आभड़ने परम पवित्र तीर्थों की यात्रा की । पूजा, प्रभावना, स्वामीवात्सल्य और स्वधर्मी बन्धुओं को पहिरावणी देकर रावजी ने परमार्थ के साथ इस लोक में भी अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली । वास्तव में मनुष्यों का जब अच्छा उदय काल होता है तब उसको निमित्त कारण भी तथावत् अभ्युदन के मिल ही जाते हैं। जब तीन वर्षों के अथाह परिश्रम एवं द्रव्य व्यय के पश्चात् मूरिजी का उपदेश और रावजी
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