Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य कक्कसरि का जीवन ]
[ोसवाल सं० १४७४-१५०८
भावों की निर्मलता से बहुत ही प्रसन्न हुए। क्रमशः वापिस लौटते हुए समीप स्थित कण्डे की राशि पर भाग्य की प्रेरणा से या पुण्योदय से आचार्यश्री ने अपना रजोहरण फेर दिया जिससे वे सबके सब स्वर्ण के रूप में परिणित हो गये । बस, सूरिजी ने तो अपना उक्त चमत्कार बतलाकर शीघ्र ही प्रस्थान कर दिया । इधर भैंसाशाह भी गोमायु-राशि को स्वर्णमय देख कर आश्चर्य चकित हो गया । वह रह २ कर सूरिजी का परमोपकार मानने लगा । भैंसाशाह के अशुभ कर्मों का अन्त हो चुका, उपादान कारण उज्वल था ही केवल एक निमित्त कारण की आवश्यकता थी सो सरिजी जैसे अनन्य आचार्य का समयानसार सिल ही गया। वास्तव में महात्मा लोगों की कृपा से क्या दुःसाध्य है ? अर्थातू-कुछ भी नहीं । कालकाचार्य ने वासःक्षेप डाल कर कुम्भकार के निवाड़े (भट्टी) को स्वर्णमय बना दिया। सिद्धसेन दिवाकर ने विद्या से स्वर्ण किया तो वज्रसूरि ने एक पट्ट पर बैठा कर दुष्काल के समय में श्रीसंघ को सुखी बनाया। जावड़ शाह एवं जगडू शाह को तेजमतूरी मिली जिससे सारा घर ही स्वर्णमय होगया सेठ पाता को एक थैली मिली शा० जसा को पारस मिला। जैतारण के भण्डारीजी की थैली तो एक दम अखूट बन गई। मेड़ता के शाह की सम्पत्ति अक्षय हो गई इत्यादि २ महात्माओं की कृपा से अनेक भावुकों के मनोरथ सफल हो गये। भैंसाशाह पर भी तो उसी तरह गुरू कृपा थी। आज उनके घर से दारिद्रय सहसा, बिना किसी प्रयत्न के भाग छूटा । लक्ष्मी ने तो कुंकुममय पवित्र पैरों से भैंसाशाह के मकान पर पदार्पण किया जिससे कण्डे की राशि मात्र कनक कण्डे के रूप में परिवर्तित हो गई। इस घटना के दूसरे दिन ही सूरिजी ने विहार कर दिया । भैंसाशाह ने भी अपने ऊपर उपकार करने वाले गुरुदेव की यथोचित सेवा भक्ति कर अपने घर पर चले आये । उस अक्षय स्वर्ण राशि का गदइया नामक सिक्का बनाया और पुण्य की प्रबलता से प्राप्त उस द्रव्य के द्वारा बहुत से सामाजिक एवं धार्मिक कार्य किये भैंसाशाह के अनुपम गुणों एवं उदारता की स्मृति करने वाली तोन वस्तुएं तो अद्यावधि भी विद्यमान हैं। (१) जैन मन्दिर ( २ ) पानी की सुविधा के लिये बनवाया हुआ कूप (३) नगर रक्षण के लिये परकोट । अस्तुः ___ उस गदइया सिक्के के कारण भैंसाशाह को लोग गदइया कहने लगे जो कालान्तर में उनकी सन्तान परम्परा के लिये जाति के रूप में व्यबहत होने लगी। यों तो भैंसाशाह पहिले से ही उदार दिल वाला था पर अनायास प्राप्त धन राशि के सदुपयोग में तो उन्होंने अनन्य उदारता बतलाई । याचकों को प्रभूत दान दिया जिससे उनकी कीर्ति दशों दिशाओं में सुविस्तृत हो गई।
संसार के रंगमञ्च पर नित्यप्रति विचित्रता के विचित्र नृत्य हुअा ही करते हैं तदनुसार हजारों सज्जनों में एक दो दुर्जन भी तो प्रकृतितः मिल जाते हैं इन दुर्जनों ने अपने वाक् प्रपञ्च से भैंसाशाह और डीडवाना नरेश के ऐसा परस्पर कलह करवा दिया कि भैंसाशाह को डिडवाना छोड़ने के लिये बाध्य होना पड़ा। कर्मानुयोग से उस ही समय भैसाशाह का साला भी वहां पर आगया। उसने शाह को भिन्नमाल पधारने की आग्रह पूर्ण प्रार्थना की। अतः भैंसाशाह भी अपनी मातेश्वरी एवं सकल धन राशि लेकर भिन्नमाल चले गये । अब से आप सकुटुम्ब भिन्नमाल में ही निवास करने लगे।
इधर श्राचार्य ककसूरीश्वरजी महाराज ग्रामनुग्राम परिभ्रमन करते हुए एक समय भिन्नमाल पधारे। शा० भैंसा ने नवलक्ष द्रव्य व्यय कर सूरिजी का नगर प्रवेश महोत्सव किया। कुछ समय के पश्चात् सूरीश्वरजी के उपदेश से भैंसाशाह ने एक संघ सभा भरने का भी आयोजन किया जिसमें सुदूर प्रान्तीय चतुर्विध संघ को यथायोग्य आमन्त्रण पत्रिकाओं एवं योग्य पुरुषों को भेज कर मामन्त्रित किया । योग्य तिथि पर प्राचार्यश्री के नेतृत्व में इस विराट् संघ का कार्य प्रारम्भ हुआ । सर्व प्रथम सूरिजी ने सभा के उद्देश्यों का स्पष्टीकरण करते हुए वर्तमान कालीन सामाजिक परिस्थिति पर जबर्दस्त भाषण दिया जिसका उपस्थित
जन-समाज पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। सभा में कृत प्रस्तावों को क्रियात्मक रूप देकर प्राचार्यश्री ने योग्य Jain E सूरिजी की कृपा से भैंसाशाह का भाग्योदय vate & Personal use Only,
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