Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ११०८-११२८]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
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.. प्राचार्य देवगुप्तसूरि ने भैंसाशाह के अत्याग्रह से वह चातुर्मास भिन्नमाल नगर में कर दिया । शाह भैंसा ने सवा लक्ष द्रव्य व्यय कर आगम-महोत्सव किया और व्याख्यान में महाप्रभावक श्रीभगवतीसूत्र बचवाया । शाह की माता ने गुरु गौतम स्वामी के द्वारा पूछे गये ३६००० प्रश्नों की ३६००० स्वर्ण मुद्रिकाओं से परम श्रद्धापूर्वक अर्चना की। इस प्रकार आपके चातुर्मास में धर्म का बहुत ही उद्योत हुआ।
धर्मवीर भैंसाशाह की धर्मनिष्ठा माता की कई दिनों से यह भावना थी कि यदि गुरु महाराज का शुभ संयोग मिल जाय तो परम पावन तीर्थाधिराज श्रीशत्रुञ्जय की यात्रा के लिये संघ निकाल कर यात्रा की जाय, क्योंकि अब उनकी अत्यन्त वृद्धावस्था हो चुकी थी और काल का क्या पता कि वह किस वक्त आकर के अचानक हमला करदे । वे अपने मनोरथसिद्धि की इन्तज़ारी कर रही थी कि उनके प्रबल भाग्योदय से सूरिजी का चातुर्मास वहीं होगया । हस्तागत इस अमूल्य स्वर्णावसर का सविशेष सदुपयोग करने के लिये धर्मिष्ठा माता ने अपने परमप्रिय पुत्र भैंसाशाह से एतद्विषयक परामर्श किया। भैंसाशाह जैसे धर्मानुरागी पुरुष ऐसे पुण्योपार्जक कार्यों के लिये इन्कार हो ही कैसे सकते थे ? अपने मातेश्वरीजी के इन परमादेय वचनों को सहर्ष स्वीकार करते हुए उनकी इस उत्तम भावना के लिये भैंसाशाह ने हार्दिक प्रसन्नता प्रगट की और समारोह पूर्वक शत्रुञ्जय की यात्रा के लिये विशाल संघ निकालने की अनुमति देदी । अब भैंसाशाह की ओर से संघ के लिये विपुल तैय्यारियां होने लगी। निर्दिष्ट समय पर चतुर्विध संघ विशाल संख्या में निर्दिष्ट स्थान पर एकत्रित होगया। आचार्यश्री के द्वारा बतलाये हुए शुभ मुहूर्त में संघ ने तीर्थाधिराज की ओर प्रस्थान कर दिया परन्तु किन्हीं खास कारणों से भैंसाशाह का संघ में जाना न होसका । माता ने पूछा-परम प्रिय वत्स! यदि मार्ग में कहीं खर्च के लिये रकम की आवश्यकता पड़ जाय तो उसके लिये कोई ऐसा समुचित उपाय तो होना ही चाहिये जिससे कठिनाई का सामना न करना पड़े । यद्यपि मार्ग व्यय के लिये मेरे पास रकम कम नहीं है पर प्रसङ्गतः किसी कारण विशेष से हमें विशेष जरुरत ज्ञात पड़े तो क्या किया जायगा ? पुत्र ने उत्तर दिया-माताजी जहाँ आपको आवस्यकता दृष्टिगोचर हो वहां मेरे नाम से रकम ले सकती हो, मेरे नाम से रकम देने में कोई भी आपको इन्कार नहीं करेगा। फिर भी कर्तव्यशील भैंसाशाह ने अपनी मां को विश्वास दिलाने के लिये एक डिबिया में अपनी मूछ का बाल डालकर उसे भली प्रकार से पेकिंग कर अपनी माताजी को दिया और कहा-यदि आपको आवश्यकता पड़े तो इस डिबिया को गिरवे (बंधक ) रख कर, जितनी आवश्यकता हो उतनी रकम ले लेना परन्तु मार्ग में किसी भी तरह से खर्च करने में संकीर्णता-कृपणता न करना । उदार हृदय से इच्छानुकूल द्रव्य का सदुपयोग कर खूब लाभ लेना। इतना कह कर भैसाशाह ने अपनी माता और संघ को तीर्थयात्रा के लिये बिदा किया।
माता, प्राचार्यश्री के नेतृत्व में संघ को लेकर क्रमशः छोटे बड़े तीर्थों की यात्रा करती हुई सिद्धाचल पर पहुँची । परमपावन तीर्थ की यात्रा कर अपने मानसिक तीर्थ यात्रार्थ संघ निकालने की पवित्र भावनाओं के सफलीभूत हो जाने से भैंसाशाह की माता ने खूब ही उदार हृदय से द्रव्य का व्यय किया अष्टाह्निका महोत्सव, पूजा, प्रभावनादि कार्यों को सानन्द सम्पन्न कर माता ने खूब ही लाभ लिया। लाभ भी क्यों नहीं लेती जिसके भैंसाशाह जैसे धर्मनिष्ठ सुपुत्र फिर खर्च करने में कमी ही किस बात की होती ? शत्रुञ्जयादि तीर्थों की यात्रा कर संघ पुनः स्वस्थान की ओर लौट रहा था तब मार्ग में पाटण नामक एक विशाल नगर
आया। संघ ने वहां की भी यात्रा की । उस समय पाटण में सैंकड़ों कोटिध्वज थे। उनके ऊंचे २ मकानों पर उन्नत पताकाएं फहरा रही थीं । लक्षाधीशों की तो धनिक वर्ग में गिनती ही नहीं गिनी जाती थी ? ऐसे पाटण में भैंसाशाह की माता ने भी उनकी स्पर्धा में खूब ही द्रव्य व्यय किया । यही कारण था कि माता का खजाना खाली होगया । भैंसाशाह के पूर्वोक्त कथनानुसार भैंसाशाह की माता अपने कार्यकर्ता व्यक्तियों को साथ लेकर पाटण में ईश्वरदास नामक एक श्रेष्ठी के यहां गई। माता के कार्यकर्ताओं ने श्रेष्ठी से कहा-ये
भैंसाशाह की माता का संघ
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