Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ११०८-११२८]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
गया तो प्रतिष्ठा भी जल्दी ही होनी चाहिये पर श्रेष्टिवर्य ! हमारे पूज्य आचार्यश्री देवगुप्तसूरिजी अभी गुजरात में विचरते हैं अतः प्रतिष्ठा भी उन्हीं पूज्य पुरुषों के हाथ से होना अच्छा है । तुम आचार्यश्री को श्रामन्त्रणपत्र भेज कर यहां बुलाने का प्रयत्न करो। गुरु के वचनों को विनयपूर्वक स्वीकृत कर सेठ नारायण ने अपने पुत्रों को प्रार्थना पत्र के साथ आचार्यश्री के सेवा में गुर्जर प्रान्त की ओर भेजा । उन्होंने प्राचार्यश्री के निर्दिष्टस्थान पर जाकर सूरिजी को प्रार्थना पत्र दिया व नागपुर पधारने की प्राग्रहपूर्ण प्रार्थना की। सूरिजी ने भी लाभ का कारण सोचकर प्रार्थना को स्वीकार करली । आचार्यश्री जय क्रमशः विहार करते हुए नागपुर पधारे तो तत्रस्थ श्रीसंघ एवं * नारायण सेठ ने आपका भव्य स्वागत समारोह किया। तत्पश्चात् शुभ मुहूर्तकाल में सूरिजी एवं कृष्णर्षि ने सेठ के मन के मनोरथ को पूरी करने वाली महामाङ्गलिक प्रतिष्ठा करवाई जिससे जैनधर्म की पर्याप्त प्रभावना हुई । श्रेष्टिवर्य नारायण का बनवाया हुआ मन्दिर इतना विशाल था कि उस मन्दिर की व्यवस्था के लिये ७२ पुरुष व ७२ स्त्रियां सभासद निर्वाचित किये गये । इससे यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि उस समय स्त्रियां भी मन्दिरों की सार सम्भाल में सभासद के रूप चुनी जाती थी।
मुनि कृष्णार्षि जैसे उत्कृष्ट तपस्वी थे वैसे विद्यामन्त्र में भी परम निपुण थे। आपने सपादलक्ष प्रान्त में परिभ्रमन करके जैन धर्म का सर्वत्र साम्राज्य स्थापित कर दिया । क्या राजा और क्या प्रजा ? सब ही आपकी ओर आकर्षित थे।
मुनि कृष्णार्षि ने कठोर तप के प्रभाव से बहुत सी लब्धियां प्राप्त करली थी। आपने अपने लब्धि प्रयोग से गिरनार मण्डन भगवान नेमिनाथ के दर्शन कर गुडाग्राम होते हुए मथुरा नगरी के पार्श्वनाथ के दर्शन किये। पश्चात् क्षीर समुद्र के जल सदृश दुग्ध क्षीर से पारणा किया।
एकदा कृष्णार्षि ने प्राचार्यश्री देवगुप्तसूरि से प्रार्थना की-पूज्यवर ! आप, अपने पट्ट पर किसी योग्य मनि को सरिमन्त्र की आराधना करवा कर पट्टधर बना दीजिये। इससे गच्छ परम्परा
र परम्परा अविच्छिन्न रूप से चलती रहेगी। कारण, आचार्यश्री ककसूरि के स्वर्गवास के पश्चात् भी कई अर्से तक पट्ट खाली रहा फिर मैंने अन्य गच्छियों से आपको सूरिसदाराधन करवाया अतः आप अपनी मौजूदगी में ही योग्य मुनि को सूरिपदारूढ़ करदें तो भविष्य के लिये हितकर होगा। आचार्यश्री देघगुप्त सूरि ने कृष्णार्षि की बात को यथार्थ समझ कर अपने पट्टपर मुनि जयसिंह को सूरि मन्त्र की आराधना करवा कर अपना पट्टधर बना लिया । परम्परानुसार आपका नाम सिद्धसूरि रख दिया । सिद्धसूरि ने भू भ्रमन कर कई नर नारियों को दीक्षा देकर गच्छ को खूब वृद्धि की । श्रीसिद्धसूरि ने भी अपने वीरदेव नाम के शिष्य को सूरि बनाकर आपका नाम कक्कसूरि रख दिया । कक्कसूरि ने अपने शिष्य वासुदेव को सूरि बनवा कर उनका नाम श्रीदेवगुप्तसूरि निष्पन्न किया। इस प्रकार इस शाखा में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई पर कलिकाल के इस क्रूर साम्राज्य में एक गच्छ की इस प्रकार वृद्धि होना प्रकृति से असह्य था । परिणाम स्वरूप आचार्यश्री देवगुप्त सूरि के स्थान पर सिद्धसूरि हुए। आप एक समय अमरपुरी सदृश समृद्धिशाली चन्द्रावती नगरी में पधारे । श्रीसंघ ने आपका बहुत ही समारोह पूर्वक शानदार स्वागत किया । आपका व्याख्यान हमेशा होता था जिसका जन समाज पर अच्छा प्रभाव पड़ता था। एक समय आचार्यश्री सिद्धसूरि के शरीर में उज्जवल वेदना उत्पन्न होगई । आपश्री के शरीर की चिन्तनीय हालत को देख कर श्रीसंघ ने आग्रह किया-पूज्यवर ! आप चिरकाल तक शासन की सेवा करते रहें यह हमारी शुभ भावना है फिर भी अपने पट्ट पर किसी योग्य मुनि को पट्टधर बनादें तो अच्छा है। श्रीसंघ की उक्त प्रार्थना पर सूरिजी ने विचार किया शरीर का क्या विश्वास है ? यदि श्रीसंघ का ऐसा आग्रह
* भागे चलकर देवी चक्रेश्वरी के वरदान से प्रेष्ठि मारायण की सन्तान वरदिया नाम से प्रसिद हुई। इन्हीं को आज वरदिया कहते हैं। वरदिया का ही वरडिया अपभ्रंश है। इनकी परम्परा में पुनड़शाह बड़ा ही नामी हुभा।
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नागपुर के नारायण सेठ के मन्दिर की प्रतिष्ठा
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