Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ओसवाल सं० १५०८-१५२८
दृष्टान्त, उदाहरण बतलाये । राजा ने मुनि शान्ति के उपदेश को हृदयङ्गम कर अपने दुर्ग में एक मन्दिर बनवाया। जब मन्दिर तैयार होगया तो राजा ने शान्ति मनि को बलवाकर कहा-गरुव मन्दिर तैय्यार है इसकी प्रतिष्ठा करवाइये । मुनि ने कहा-राजन् ! प्रतिष्ठा तो हमारे प्राचार्य ही करवा सकते हैं। आप आचार्यश्री कक्कसूरि को बुलवाइये। इस पर राजा ने अपने प्रधान पुरुषों को भेजकर सूरिजी को बुलवाया। जय सूरिजी त्रिभुवनदुर्ग में पधारे तो राजा, प्रजा एवं शान्ति मुनि ने गुरुदेव का भव्य स्वागत किया। शान्तिमुनि ने सूरिजी से अर्ज की, आचार्य देव ! मन्दिर तैय्यार है, प्रतिष्ठा करावें । सूरिजी ने धर्म स्नेह से कहा-शान्ति ! तू भाग्यशाली है।
सूरिजी ने शुभ मुहूर्त एवं स्थिर लग्न में प्रतिष्ठा करवाकर जैनधर्म की पर्याप्त प्रभावना की । सूरिजी के प्रखर प्रभाववर्धक उपदेश से राजा ने अपने राज्य में सर्वत्र अहिंसा की उद्घोषणा कर जैनधर्म का प्रचार बढ़ाया।
अहा-ताना-माना हो तो भी ऐसा हो कि जिससे जैनधर्म की प्रभावना हो । प्राचार्यश्री ने तो केवल ताने में ही शान्ति मुनि को कहा था पर शान्ति मुनि ने तो उसे ही प्रत्यक्ष करके बतला दिया, क्या यह कम महत्व की बात है।
उस समय के आचार्य चाहे चैत्य में ठहरते हों पर जैनधर्मानुराग तो उनके नस २ में भरा हुआ था। वे जहां जाते वहां ही नये जैन बना देते । इससे पाया जाता है कि उस समय के आचार्य बड़े ही प्रभावशाली, उप्रविहारी, उत्कृष्टाचारी थे तभी तो राजा महाराजाओं पर उनका प्रभाव पड़ता था।
आचार्य ककसूरिजी म० युगप्रवर्तक, महाप्रभाविक आचार्य हुए। आपश्री का जैन समाज पर जो उपकार है वह भूला नहीं जा सकता है।
प्राचार्यश्री देवगुप्तसूरि और वीणावाद-चंद्रावती के प्राग्वट वंशीय वीर जगदेव ने आचार्यश्री ककसूरि के उपदेश से दीक्षा ली थी। समयान्तर जब उन्होंने सूरिपद योग्य सम्पूर्ण गुणों को धारण कर लिया तब आचार्यश्री ककसूरिजी म० ने आपको सूरिपद प्रदान कर परम्परानुसार आपका नाम देवगुप्तसूरि निष्पन्न कर दिया। जब आचार्यश्री ककसूरि का स्वर्गवास होगया तत्र गच्छ का सम्पूर्ण भार श्री देवगुप्तसूरि पर था पड़ा। गच्छ का असाधारण उत्तरदायित्व आपके सिर पर था तथापि आप जिनभक्ति में इतने तल्लीन रहते कि कभी २ भक्त्यावेश में बीणा को भी बजाने लगते । या कार्य चारित्र वृत्ति विघातक था। अतः श्रीसंघ के प्रमुख व्यक्तियों ने उनसे कहा-प्राचार्य देव ! यह कार्य आप जैसे महापुरुषों के लायक नहीं है। यदि आपकी भी इस प्रकार की प्रवृत्ति ( साधुधर्म के प्रतिकूल ) हो गई तब तो आपके शिष्य समुदाय पर भविष्य में इसका क्या प्रभाव पड़ेगा ? पर इस प्रकार की विनयपूर्ण प्रार्थना पर अमल करने के बजाय आप अपनी प्रवृत्ति पूर्वापेक्षा भी दूनी रफ्तार से बढ़ाने लगे। विवश सकल श्रीसंघ एक स्थान पर एकत्रित हो आचार्यश्री को वीणा बजाने रूप अनुचित प्रवृत्ति के लिये सख्त उपालम्भ दिया। इस व्यसन को सर्वथा त्याग करने के लिये उन्हें हर तरह से बाध्य किया पर सूरिजी को तो जिनभक्ति रूप गायन व वीणा की झंकार ( जो जिन भक्ति को द्विगुणित करती थी) इतनी प्रिय थी कि वे उसे नहीं त्याग सके । जैसे मदोन्मत्त हाथी अंकुश की किञ्चित भी परवाह नहीं करता उसी तरह सूरिजी ने श्रीसंघ की इस बात पर कुछ भी लक्ष्य नहीं दिया।
आचार्यश्री ने प्राग्वट जैसे पवित्र एवं उच्च खानदान में जन्म लिया था। ये स्वभाव से ही गम्भीर एवं शास्त्रमर्मज्ञ थे। वे समझ गये कि वीणावादन शास्त्र निंद्य मुनि नियम विघातक है। मेरी यह प्रवृत्ति साधु धर्म के प्रतिकूल एवं अनुचित है पर अब मेरे से छूटना भी अशक्य है, फिर भी शास्त्र एवं श्रीसंघ के खिलाफ इस प्रकार की प्रवृत्ति रखने में जिन शासन को क्षति ही है । अतः या तो इस हेय प्रवृत्ति को छोड़ना या इस वाणीवाद और आचार्य देवगुप्तसरि
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