Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

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Page 749
________________ वि० सं० १०७४-११०८] [ भगवान् पार्थनाथ की परम्परा का इतिहास की ओर से भगवान की भक्ति के लिये परिकर व पूजा की अत्युत्तम सामग्री का यथोचित प्रबन्ध कर दिया गया। उस समय मारकोट में श्रावकों के चार सौ घर तथा पांच पौषधशालाएं थी। इससे अनुमान किया जाता है कि मारोटकोर एक समय जैनियों का केन्द्र स्थान था। जैनियों की इतनी विशाल आबादी के अनुसार मारोटकोट में इसके पूर्व भी कई मन्दिर * होंगे ऐसा अनुमान किया जाता है । __ मारोटकोट के राजा के बनवाये मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाने से राजा प्रजा पर जैनधर्म का बहुत ही प्रभाव पड़ा। यथा राजा तथा प्रजा की लोकोक्तयानुसार राजा ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया तो प्रजा के लिये कहना ही क्या था ? ___ सूरिजी मारोटकोट की प्रतिष्ठा के पश्चात् भ्रमन करते हुए राणकदुर्ग में पधारे। वहां भी आपका व्याख्यान हमेशा हुआ करता था। वहां के राजा सुरदेव भी हमेशा श्रापके व्याख्यान में आया करते थे। सूरिजी ने एकदा मन्दिर बनवाने के कल्याणकारी पुण्य एवं भविष्य के लाभ को बतलाते हुए फरमाया किजहांतक मन्दिर यथावत् बना रहता है वहां तक श्रावक समुदाय उनकी सेवा पूजा किया करता है। उनके इस लाभ का यत्किञ्चित भाग मन्दिर बनाने वाले को भी मिलता है । इसके स्पष्टी करण के लिये मारकोट के राजा का ताजा उदाहरण सुनाया जिससे राजा सुरदेव की इच्छा भी अपनी ओर से मन्दिर बनवाने की होगई । उसने श्रावकों को बुलवा कर अपने निजके द्रव्य से भगवान शान्तिनाथ के मन्दिर को बनाने की आज्ञा प्रदान करदी। बस, फिर तो देर ही क्या थी ? श्रावकों ने यथा क्रमः शीघ्र ही मन्दिर तैय्यार करवा दिया । जब मन्दिर अच्छी तरह से तैय्यार होगया तो राजा ने सूरिजी को बुलवा कर मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई । इस शुभ कार्य में राजा ने स्वराजकीय प्रभावनानुसार पुष्कल द्रव्य व्यय किया और आने वाले स्वधर्मी बन्धुओं को अच्छी प्रभावना दी। सूरिजी बड़े ही दीर्घदर्शी थे । अतः आपश्री ने पूर्वोक्त दोनों मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाकर उन भपतियों को ऐसा उपदेश दिया कि प्रति वर्ष उन दोनों की ओर से अपने २ मन्दिर में अष्टाह्निका महोत्सव भी होने लगा। राजा ने सूरिजी के सर्व अनुकूल वचनों का देव वाणी के अनुसार सादर स्वीकार कर लिया। आचार्यश्री ककसूरि के पास एक शान्ति नामका मुनि था । वह जैसे विद्वान एवं वक्तृत्वकला में निपुण था वैसे धर्माभिमानी भी था। कभी २ सरिजी के साथ भी वाद करता था पर वह बाद केवल शकवा था अपितु परमार्थिक रहस्य को लिये हुए रहता था। एक दिन गुरु शिष्य मन्दिर के विषय में बातें कर रहे थे, इतने में सूरिजी ने पूछा-शान्ति ! तू भी किसी राजा को प्रतिबोध देकर मन्दिर बनवावेगा ? इसके उत्तर में शान्ति ने तुरन्त उत्तर दिया-पूज्येश्वर ! यदि मैं किसी राजा को प्रतिबोध देकर मन्दिर बनवाऊंगा तो प्रतिष्ठा करने को तो आप पधारोगे न ? सूरिजी ने कहा-बेशक ! बस, फिर तो था ही क्या, शान्ति मुनि ने सूरिजी की आज्ञा लेकर विहार कर दिया। क्रमशः त्रिभुवनदुर्ग में जाकर वहां के राजा को प्रतिबोध दिया। धर्मोपदेश देते हुए मन्दिर के विषय को मुख्य रक्खा । जैन मन्दिर बनवा के अनन्त पुण्योपार्जन करने के किले के खोद काम से भूगर्भ से नेमिनाथ भगवान की जैन प्रतिमा मिली इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि एक समय सिन्ध प्रांत में जैनधर्म राजाओं का धर्म रहा था । आचार्यश्री यक्षदेवसूरि और कक्कसूरि के जीवन वृत्त से स्पष्टतया पाया जाता है कि-सिन्ध प्रान्त में प्रायः राजा प्रजा का धर्म जैनधर्म ही था । आगे चलकर हम इस विषय में बतलावेंगे कि-विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में सिन्ध प्रान्स में केवल एक उपकेश गच्छीय प्रावक के भधिकार में पाँच सो मन्दिर थे। चौदहवीं शताब्दी तक सिंध में लुनाशाह जैसे दानी मानी पुरुष सिंध धरा के अलङ्कार रूप बसते थे। मुसलमानों के करताप यानी तापूर्ण भत्याचार से सिंध प्रान्त का त्याग कर श्रावक लोग मरुधरादि प्रान्तों में चले गये थे। दूसरे मुनियों के विहार का भी अभाव होगया इसी से भाज सिंध धरा जैन समाज विहीन होगई है। १४७६ Jain Education international For Private & Personal श्राचार्य श्री के शिष्य शान्ति मुनि का ताना....ra

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