Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ोसवाल सं० १५०८-१५२८
इधर शाह पद्मा और शाह गोसल दोनों एकत्रित हो विचार करने लगे कि अब क्या करना चाहिये? दीक्षा की भावनाओं को परिवर्तित करने के लिये तो जल्दी से जल्दी लग्न किया पर यहां तो एक के बदले दोनों ने दीक्षा लेने का विचार कर लिया। दोनों शाहों ने अपने पुत्र पुत्रियों को बहुत कुछ समझाया पर वहाँ भी हलद पतंग का रंग नहीं था कि वे सहसा ही अपना कृत निश्चय त्याग देते । वहां तो लग्न का महोत्सव ही दीक्षा के रूप में परिणत होगया। इस प्रकार दम्पति के प्रबल वैराग्य को देख कर के कई स्त्री पुरुष उनका अनुकरण करने को तैय्यार होगये । इधर पूज्यवर आचार्य देव का त्याग एवं वैराग्यमय उपदेश भी धाराप्रवाहिक रूप से प्रारम्भ था जिसके प्रभाव से नागरिकों के सिवाय इधर तो शाह पद्मा अपनी धर्मपत्नी के साथ और उधर शाह गोसल अपनी पत्नी के साथ दीक्षा की तैय्यारियां करने लगे। इस महोत्सव में दोनों की ओर से करीब पन्द्रह लक्ष द्रव्य व्यय करके बड़े ही समारोह के साथ उत्सव किया गया । स्वधमी बन्धुओं को प्रभावना व याचक को पुष्कल दान दिया। वि० सं० १०७६ के फाल्गुन शुक्ला पंश्चमी के शुभ मुहूर्त और स्थिर लग्न में ४२ नर नारियों को आचार्यश्री कक्कसूरि ने भगवती दीक्षा देकर चोखा का नाम देवभद्र मुनि रख दिया। इस प्रभावोत्पादक कार्य से सिन्धधरा में जैनधर्म का पर्याप्त उद्योत हुआ।
। वास्तव में वह लघुकर्मियों का ही समय था कि वे थोड़े से उपदेश को श्रवण करके ही दुःखमय सांसारिक जीवन का सहसा त्याग कर आत्म-कल्याण के मार्ग में संलग्न हो जाते थे. वह भी एक दो के अनुकरण में अनेक । यही कारण है कि उस समय प्रत्येक प्रान्त में सैकड़ों साधु साध्वी विहार करते थे और उन तपस्वी मुनियों के त्याग वैराग्य का प्रभाव भी जैन जैनेतरों पर पर्याप्त रूप में पड़ता था।
मुनि देवभद्र पर सूरिजी की पूर्ण कृपा थी। उन्होंने सूरिजी के चरण-कमलों में रहकर आपका विनय, वैय्यावच्च एवं सेवा भक्ति करके आगमों के ज्ञान को इस प्रकार सम्पादन करना प्रारम्भ किया कि थोड़े ही समय में आप धुरंधर विद्वान बन गये । आप अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के सविशेष प्रभाव से न्याय, व्याकरण, तर्क, छन्द, अलंकार, ज्योतिष और अष्टांग योग निमित्तादि ज्ञान में बड़े ही निपुण हो गये। यही कारण था कि सं० १०५८ चन्द्रावती के संघ ने महा महोत्सव पूर्वक आपको उपाध्याय पद से विभूषित किया और भिन्नमाल नगर में शाइ भैंसा ने सप्तलक्ष द्रव्य व्यय कर आचार्य पद का अति समारोह पूर्वक महोत्सव किया। वि० सं० ११०८ के वैशाख शुक्ला पूर्णिमा के शुभ दिन आचार्य पद प्रदान कर कक्कसूरीश्वरजी महाराज ने
आपका नाम परम्परानुसार देवगुप्तसूरि रख दिया। अखिल गच्छ का भार आपको अर्पण कर आप परम निवृत्ति पूर्वक आत्म-ध्यान में संलग्न हो गये।
प्राचार्य देवगुप्तसूरिजी महाराज महा प्रतिभाशाली, बाल-ब्रह्मचारी, धुरंधर विद्वान एवं धर्म प्रचारक आचार्य हो गये हैं। आपके अलौकिक तपस्तेज को सविशेष सत्ता से जन-समाज आपकी ओर स्वयमेव
आकर्षित हो जाता था ! आपश्री की व्याख्यान शैली तो इतनी मधुर, रोचक एवं हृदयग्राहिणी थी कि जिस किसी ने आपका एक बार भी व्याख्यान सुन लिया वह हमेशा के लिये व्याख्यान श्रवण की इच्छा से उत्कंठित बना रहता। षट दर्शन के पूर्ण मर्मज्ञ होने से आप वस्तु तत्व का विवेचन इतनी स्पष्टता पूर्वक करते थे कि जैन व जैनेतर शास्त्र विदग्ध समाज भी दांतों तले अंगुली लगाने लग जाता। अपने गुरूदेव की साङ्गोपाङ्ग सेवा-भक्ति कर आपने कई चमत्कार पूर्ण विद्याओं एवं कलाओं को हस्तगत कर लिया था कि जिनका शासन के उत्कर्ष के लिये समय २ पर उपयोग किया करते थे। इन्हीं विद्याओं के बल पर स्थान २ पर आपने शासन की इतनी प्रभावना की कि जिसका वर्णन करना निश्चित ही लेखन शक्ति से बाहिर है। आपश्री का शिष्य समुदाय भी विस्तृत संख्या में था योग्य मुनिवर्ग योग्य पदों पर प्रतिष्ठित थे और समयानुसार प्रत्येक प्रान्तों में विचरण कर जैनधर्म का उद्योत करते रहते । कहना होगा कि आचार्य देवगुप्तसूरि अपने समय के अनन्य युग प्रधान आचार्य थे। चोखा पत्नी के साथ दीक्षा ली
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