Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

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Page 738
________________ आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [श्रोसवाल सं० १५०८-१५२८ स पर सूरीश्वरजी महाराज ने फरमाया कि महानुभाव ! आपका भाव कितने ही भक्ति का हो पर कोई भी त अपनी मर्यादा में होती है तबतक ही शोभा देती है मर्यादा का उल्लंघन करने पर गुण भी अवगुण एवं शिंसा भी निंदा का रूप धारण कर लेती है क्योंकि कहां तो सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान् और कहां मेरे जैसा अल्पज्ञ ? तीथेकर भगवान् केवलज्ञान केवलदर्शन से लोकालोक के चराचर पदार्थों के भाव एक ही समय में इस्तामल की तरह देखते हैं तब मेरे जैसे अल्पज्ञ को प्रायः कल की बात भी याद नहीं रहती है। अतः आपने परी प्रशंसा नहीं बड़ी भारी निन्दा की है और मैं इससे सख्त नाराज भी हूं। आयन्दा से सब लोगों को वयाल रखना चाहिये कि कोई भी शब्द निकाले पर पहले उनको खूब सोचे समझे बाद ही मुँह से निकालें। पसंगोत्पात मैं आज थोडासा तीर्थकर देवों के व्याख्यान का हाल श्रापको सुना देता हूँ। तीर्थङ्कर भगवान अपने कैवल्यज्ञान कैवल्यदर्शन द्वारा सम्पूर्ण लोकालोक के सकल पदार्थ को प्रगट इस्तामल की माफिक जाना देखा है उन तीर्थङ्करों की विभूतिरूप समवसरण अर्थात् जिस पवित्र भूमि पर तीर्थङ्करों को कैवल्य ज्ञानोत्पन्न होता है वहाँ पर देवता समवसरण की दिव्य रचना करते हैं । जैसे वायुकुमार के देवता अपनी दिव्य वैक्रिय शक्ति द्वारा एक योजन प्रमाण भूमि मण्डल से तृण काष्ट कांकरे कचरा धूल मिट्टी वगैरह अशुभ पदार्थों को दूर कर उस भूगि को शुद्ध स्वच्छ और पवित्र बना दिया करते हैं। ___मेघकुमार के देवता एक योजन परिमित भूमि में अपनी दिव्य वैक्रिय शक्ति द्वारा स्वच्छ निर्मल शीतल और सुगन्धित जल की वृष्टि करते हैं जिससे बारीक धूल-रंज उपशान्त हो सम्पूर्ण मण्डल में शीतलता छा मृत देवता अर्थात पट ऋतु के अध्यक्ष देव षट ऋत के पैदा हए पांच वर्ण के पुष्प जो जल से पैदा हुबे उत्पलादि कमल और थल से उत्पन्न हुए जाइ जूई चमेली और गुलाबादि वह भी स्वच्छ सुगन्धित और ढीश्च ण (जानु) प्रमाण एक योजन के मण्डल में वृष्टि करते हैं और देवता उन पुष्पों द्वारा यथास्थान सुन्दर और मनोहर रचना करते हैं। यथा समवायंग सूत्रे __ "जलधलय भासुर पभूतेणं विठंठाविय दसवण्णेणं कुसुमेणं जाणुस्सेहप्पमाण मित्ते पुष्फोवयारे किजई" प्रभु के चौंतीस अतिसय में यह अठारवां अतिशय है। व्यनार देव अपनी दिव्य वैक्रिय शक्ति द्वारा मणि-चन्द्रकान्तादि रन-इन्द्र नीलादि अर्थात् पांच प्रकार के मणि रजों से एक योजन भूमि मण्डल में चित्र विचित्र प्रकार से भूमि पिठीका की रचना करते हैं। पूर्वोक्त पांच प्रकार के मणि रत्नों से चित्र विचित्र मण्डित, जो एक योजन भूमिका है उस पर देवता समवसरण को दिव्य रचना करते हैं। जैसे-अभिंतर, मध्य, और बाहिर एवं तीन गढ अर्थात् प्रकोट बना के उनको भीतों ( दिवारों ) पर सुन्दर मनोहर कोसी से ( कांगरों) की रचना करते हैं । जैसे कि (१) अभिंतर का प्रकोट रनों का होता है, उसपर मणि के कांगरे और वैमानिक देव रचना करते हैं। (२) मध्य का प्रकोट सुवर्ण का होता है, उसपर रनों के कांगरे और ज्योतिषी देव रचना करते हैं। (३) बाहिर का प्रकोट चांदी का होता है, उसपर सोने के कांगरे, और रचना भुवनपतिदेव करते हैं । इन तीनों प्रकोटों की सुन्दर रचना देवता अपनी वैक्रय लब्धि और दिव्य चातुर्य द्वारा इस कदर करते हैं कि जिसकी विभूती अलौकिक है, उस अलौकिकता को सिवाय केवली के वर्णन करने को असमर्थ है। . समवसरण की रचना दो प्रकार की होती है। (१) वृत-गोलाकार (२) चौरांस-जिस में वृताकार समवसरण का प्रमाण कहते हैं कि समवसरण की भीते ३३ धनुष ३२ अंगुल की मूल में पहली है, ऐसी छः भीते हैं पूर्वोक्त प्रमाण से गिनती करने से दो सौ धनुष होती है और वह प्रत्येक भीत ५०० धनुष ऊंची होती है । भिंते और प्रकोट का अन्तर शामिल करने से ८००० धनुष अर्थात् एक योजन होता है। अब प्रकोट २ के बीच में अंतर बतलाते हैं कि चांदी के प्रकोट और स्वर्ण के प्रकोट के बीच में ५००० सोवाणा अर्थात् पगोतिये होते हैं । प्रत्येक एक हाथ के ऊंचे और पहूले होने से १२५० धनुष के हुए और दरतीर्थकर भगवान् का समवसरण १४६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org 9 -10

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