Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

View full book text
Previous | Next

Page 734
________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ओसवाल सं० १५०८-१५२८ ले लीजिये और नफे नुकसान के लिये जो आप हुक्म फरमावें हम नजर करने को तैय्यार हैं। नरवीर भैंसाशाह के गुमाश्तों ने कहा-हमें नफा नुकसान लेने की तो हमारे मालिक की इजाजत ही नहीं है और बिना इजाजत के हम ऐसा करने के लिये पूर्ण लाचार हैं। हमें तो केवल माल ले जाने का ही आदेश है अतः आप अपनी ज़बान एवं इज्जत रखना चाहें तब तो किसी भी तरह जितना माल देना किया है उतना माल शीघ्र तोल दें । अब बेचारे वे लोग बड़े ही पशोपेश में पड़ गये कारण, उन्हें माल मिलने का कोई जरिया ही नहीं रहा। जहां २ माल था वहाँ २ से तो इन लोगों ने तेज भाव में भी खरीद लिया था अतः जब जिले भर में ही माल न रहा तो वे लोग उन्हें सप्लाई भी कैसे करते ? किसी प्रकार का साधन न होने के कारण पाटण निवासियों ने एतद्विषयक बहुत अनुनय विनय किया परन्तु मुनीम, गुमास्तों के हाथ में भी क्या था कि वे नरवीर भैंसाशाह की बिना इजाजत कुछ सैटल कर देते । अन्त में पाटण के अग्रगण्य नेता मिलकर सब भिन्नमाल गये और वहां जाकर नरकेशरी भैंसाशाह से मिले । बहुत अनुनय विनय करने के पश्चात् उन लोगों ने उनकी माता के किये गये अपमान के लिये हार्दिक क्षमा-याचना की। तब भैंसाशाह ने कहा-आप हमारे स्वधर्मी बन्धु हैं। आपको इतना विचार तो करना था कि एक व्यक्ति संघ निकाल कर यात्रा करता है तो क्या आपसे कर्ज रूप में ली हुई रकम को वह अदा नहीं कर सकेगा ? यदि उसके पास इतना सामर्थ्य न हो तो वह संघ यात्रा के लिये तैय्यार भी कैसे हो सकता है। यह तो किसी कारण से ऐसा संयोग प्राप्त होगया कि आपसे कर्ज लेने की आवश्यकता पड़ गई। खेर, स्वधर्मी बन्धु के नाते भी यदि आप कर्ज देने को तैय्यार न हुए तो कम से कम ऐसे अपमानजनक शब्द तो नहीं कहने थे। इसके सिवाय आपके पूर्वज भी इसी मरुभूमि से गुर्जर प्रान्त को गये तो आप लोग भी मूल मारवाड़ के ही निवासी हैं। अतः अपनी मातृभूमि के गौरव को भी नहीं भूलना चाहिये था।" इस प्रकार मधुर किन्तु हृदयविदारक शब्दों को सुनकर पाटणियों ने अपनी प्रत्येक भूल स्वीकार कर मुहुर्मुहूः क्षमा याचना की। इस पर वीर भैंसाशाह ने कहा कि-आपके गुजरात में भैंसे पर पानी लाने की जो प्रथा है उसे सर्वथा बंद करवादें तो मैं आपको माफ कर सकता हूँ। पाटण के व्यापारीगण ने किसी भी तरह इस कर्ज से विमुक्त होने के लिये उपरोक्त शर्त को सहर्ष स्वीकार करली। कई वंशावलियों में यह भी लिखा है कि भैंसाशाह ने गुजरातियों की एक लांग खुलवाई थी जो आज पर्यन्त खुली ही रहती हैं। कई स्थानों पर ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि पाटण के मारवाड़ की ओर दरवाजे पर नररत्न भैसाशाह की ऊंचे पैर की हुई एक पाषाण की मूर्ति स्थापन की गई थी कि जिसके नीचे से पाटण के लोग निकले । खैर, कुछ भी हो, पाटण के व्यापारियों ने अपनी भूल के लिये भैंसाशाह से माफी जरूर मांगी। पाटण बाहिर जिस नदी में तेल और घृत डाला गया था, उस नदी का नाम ही तेलिया नदी पड़ गया है। आज भी प्रायः लोग इस नदी को तेलिया नदी के नाम से पुकारते हैं। प्राचीनकालीन लोगों को इष्ट बल था, चारित्र शुद्धि थी, सत्य और ईमान पर बड़ी श्रद्धा थी, धर्म में सुदृढ़ता और गरीबों से सहानुभूति रखने रूप बड़ी ही दयालुता थी। यही कारण था कि वे लोग सहसा ही बड़े २ कार्यों को कर गुजरते थे । नरवीर भैसाशाह को देवी सञ्चायिका का बड़ा इष्ट था इसी से पाटण की नदी में डाला हुआ घृत तेल माण्डवगढ़ की दुकान की घृत तेल की वापिकाओं में पहुँच जाता था। श्रीमान चन्दनमलनी नागोरी, भैलाशाइ सम्बन्धी एक लेख में लिखते हैं कि माण्डवगढ़ में भैंसाशाह की घृत-तेल की वापिकाओं के खण्डहर आज भी कहीं २ दृष्टिगोचर होते हैं। माण्डवगढ़ में भैंसाशाह की घृत तेल की जंगी दुकान होने का यह अच्छा प्रमाण है। हाँ, एक बात है कि श्रीमान नागोरीजी के लेख में भैसाशाह के समय में अवश्य अन्तर पड़ता है पर इसका कारण यह है कि आदित्यनाग गोत्रीय चोरडिया शाखा में भैंसाशाह नाम के चार व्यक्ति हुए हैं अतः समय में भूल एवं भ्रान्ति हो जाना स्वाभाविक ही है। गुर्जर में भैंसा पर पानी लाना छुड़ाया For Private & Personal Use Only १४६३ Jain E www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842