Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

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Page 735
________________ वि० सं० १९०८-११२८ ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्यश्री ककसूरि की महती कृपा से एक दिन का दुःखी भैंसाशाह परम ऋद्धि को प्राप्त हुआ और उस ऋद्धि बल से अनेक पुण्योपार्जक कार्य किये । वीर भैंसाशाह ने जिस लग्न और जोश के साथ धर्म प्रचार कर शासन की प्रभावना की वह निश्चित ही वर्णनातीत है ! ____ पट्टावलीकार लिखते हैं कि श्रीमान् भैंसाशाइ की माता संघ लेकर वापिस भीनमाल आई उस समा भैंसाशाह ने स्वामिवात्सल्य करके संघ को एकादरा एकादश सुवर्ण मुद्रिकाएं रख कर बढ़िया वस्त्रों युक्त पहरावनी दी थी । याचकों को तो इतना दान दिया कि उन्होंने आपकी शुभ कविता से ब्रह्माण्ड गुंजा दिया था। मात चली जत जात, बेटा जब बाल समर पे । कत पड़त तोय काम, धन नाम मम लेत करपे ॥ परगल बहे वित्त खीत खजाना सुकृत भरपे । चलत पाटण श्राय ईश घर मात पयं पे ॥ बाल ग्रहो मम पुत के श्रापो ग्रन्थ उद्दीन मोपे। घर घर भैंसा पानी भरे, कित भैसा मात छै तो पे । पुत पुच्छे निज मात को, कुशल जात की बात । कित केता तुम पुत्र का, नाम चलत सु प्रभात || उत्तर माता ने दिया, नगर दुवार तुझ नाम । ठगी बाल दे मात को, भैसा रुड़ोज कियो काम ॥ व्यापारी पठाय के खरीद किया धी तेल । धन देइ सोदा किया, प्रबल बुद्धि का खेल । छोटा मोटा गांव में, दइ मोल अण तौल। हारिया गुजर बाणिया वोल्यो न पाले बोल ।। भैंसे नीर छुड़ावियो लाग खुलाइ एक । खरहत्थ सुत भैसो भलो, राखी मरुधर टेक ॥ छप्पन कोटि गुजरात बात जग सकल प्रसिद्धि । सञ्चायिका प्रसिद्ध रहे शिर पै सिद्ध सिद्धि ॥ नव खण्ड हुओज नाम राव राणा सब जाणे । ग्यारह सा आठ हल्ल कवि कीर्ति बखाणे ॥ अइच्च गोत मण्डण मुकुट, सुधन सुखते बोइयो। भैंसाज सेठ खरहत्थ तणो, अपणा बोल निभाइयो॥ इत्यादि वंशावलियों में बहुत से कवित मिलते हैं पर स्थानाभाव से सबके सब यहां दिया नहीं जाता है तथापि उपरोक्त नमूना से ही पाठक अच्छी तरह से समझ सकते हैं। . प्राचार्य देवगुप्तसूरीश्वरजी महाराज बड़े ही प्रतिभाशाली युग प्रवर्तक आचार्य हुए हैं आपका विहार क्षेत्र बहुत विस्तृत था । उपकेशगच्छ के पूर्वावाय की पद्धति अनुसार प्राचार्यपद प्रतिष्टित होने के बाद कम से कम एकवार तो मरुधर लाट कांकण सौराष्ट्र कच्छ सिन्ध पंजाब कच्छ शूरसेन मत्स्य आवंती मेदपाटादि प्रान्त में विहार करके धर्म प्रचार अवश्य किया करते थे तदनुसार आचार्य देवगुप्तसूरि भी प्रत्येक प्रान्तों में विहार कर अपने आज्ञावृति साधुओं की सार संभाल श्रावकों को धर्मोपदेश तथा अजैनों को जैन बनाने में अच्छी सफलता प्राप्त की भी थी इस विहार के अन्दर जैसे अजैनों को जैन बनाये थे कैसे अनेक मुमुक्षुओं को श्रमण दीक्षा दे उनका उद्धार किया तथा जैनधर्म की नींव मजवत रखने को अनेक भावकों के बनाये जैन मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा भी करवाई थी इसी प्रकार दर्शन शुद्धि के लिये कई स्थानों से आप स्वयं एवं आपके आज्ञावृति मुनिराजों ने तीर्थ यात्रार्थ संघ निकलवा कर तीर्थों की यात्रा भी की थी। आपका जीवन पट्टावलीकारों ने बहुत विस्तार से लिखा था पर मैंने यहां स्थानाभाव से संक्षिप्त में ही लिखा है। __एक समय सूरीश्वरजी महाराज चन्द्रावती नगरी की विशाल परिषदा में व्याख्यान दे रहे थे उस समय एक भद्रिक प्राणी उस परिषदा का अपूर्व ठाठ और सूरिजी के व्याख्यान देने की छटा को देख सहसा बोल उठा है कि क्या आज का दिन उत्तम है कैसे हम लोगों के शुभ कर्मों का उदय है कि जैसे गहाविदह क्षेत्र में तीर्थकरों का व्याख्यान होता है वैसे ही आज यहां पर पूज्य गुरुदेव का व्याख्यान हो रहा है इत्यादि । १४६४ __ चन्द्रावती में सूरिजी के व्याख्यान की प्रशंसा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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