Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० १५०८-१५२८
४९-आचार्य देवगुप्तसूरि (बारहवें)
सुरिः पारख जाति शृङ्ग वदयं, देनाख्य गुप्तः सुधीः भंसा शाह कभित्रमाल नगरे, भक्तोऽभवद्यः स्वयम् । निष्कास्यैष च सोत्सवं विधियुतं, सिद्धाचलं संघकम् : चके व प्रति शोधनं च जनताभ्यो गुर्जरेभ्यो व्रती । सूत्रेः सूर समः स्वकर्म करणे देवालय स्थापने, ग्रन्थानां बहुधा च संकलनता, निर्माणतास्त्र प्ययम् । दीक्षादान सुधा प्रपासु नितरां धर्मोन्नतेः कारकः ख्याति प्राप्य तपस्यया विजयतां स्वाध्याय शीलः सदा ॥
सन प्रभावक धर्म प्रचारक, दीर्घ तपस्वी, नानाविद्याविभूषित, विविध लब्धि कला सम्पन्न श्रीमान् देवगुप्तसूरि नामक जग विश्रुत आचार्य हुए। आपश्री के अलौकिक चमत्कार पूर्ण जीवन के सम्बन्ध में पट्टावल्यादि ग्रन्थों में सविशद उल्लेख मिलता है पर
ग्रन्थ विस्तार भय से यहां संक्षिप्त रूप में मुख्य २ घटनाओं को लेकर ही पाठकों की सेवा में आपका जीवन चरित्र उपस्थित कर दिया जाता है।
पाठकवृन्द, पूर्व प्रकरणों में बराबर पढ़ते आ रहे हैं कि एक समय सिन्ध भूमि पर जैन धर्म का पर्याप्त प्रचार था। उपकेश गच्छीय मुनियों के निरन्तर भ्रमण व उपदेश वगैरह के सविशेष प्रभाव से सिन्ध धरा धर्म भूमि बन गई थी। यदाकदा उपकेशगच्छाचार्यों के पदार्पण करते रहने से वहाँ विपुल धार्मिक क्रान्ति व सविशेषोत्साह फैलता रहता था । श्राद्ध समुदाय के आधिक्य से सिन्ध धरा जिन मन्दिरों से सुशोभित थी। वहाँ के श्रावक लोग बहुत ही धार्मिक श्रद्धासम्पन्न एवं देव गुरु भक्ति में लाखों रुपये सहज ही में व्यय करने वाले थे यद्यपि यहां व्यापारार्थ आगत जैन मरुधर व्यापारी ही निवास करते थे पर जैनाचार्यों के द्वारा नवीन जैनों के बनाये जाने से व उनको उपकेश वंश में सम्मिलित करने से शनैः २ जैनियों की घनी याबादी होगई थी। प्रायः सिन्धभूमि पूर्वाचार्यों एवं मुनियों के पुनः २ वि वरण करते रहने से जैनमय ही बन गई थी। इसी सिन्ध भूमि में डामरेलपुर एक प्रमुख नगर था जो व्यापारिक एवं सामाजिक स्थिति में सर्व प्रकारेण समुन्नत था।
मरुधर व्यापारी समाज में आदित्यनाग गौत्रीय गुलेच्छा शाखा के दानवीर धर्मपरायण, लब्ध प्रतिष्ठित पद्मा शाह नाम के एक प्रमुख व्यापारी थे । शाह पद्मा जैसे विशाल कुटुम्ब के स्वामी थे वैसे अक्षय सम्पत्ति के भी मालिक थे पर्यायान्सर से वे धन-वैश्रमण ही थे। शाह पद्मा का व्यापार क्षेत्र भारत भूमि पर्यन्त ही परिमितावस्था में नहीं अपितु पाश्चात्य प्रदेशों के साथ में भी घनिष्ठतम व्यापारिक सम्बन्ध था जिससे आपके नाम की ख्याति इत उत सर्वत्र प्रसरित थी। स्थान २ पर आपकी पेढ़ियां थी । सैकड़ों ही नहीं पर हजारों स्व. धर्मी एवं देशवासी बन्धुओं को व्यापार में अपने साथ रखकर उनको हर तरह से लाभ पहुंचाने के प्रयत्न में रहते थे शाह पद्मा के तेरह पुत्र और छः पुत्रियें थी। इनमें एक चोखा नाम का पुत्र बड़ा ही होनहार एवं परम सिन्ध प्रान्त का डामरेल नगर
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