Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० १०७४-११०८]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
- भैंसाशा-यदि अमा होगी तो भी उस जमा को उठाना मेरा कर्तव्य नहीं है। पूर्व की जमा बन्दी होगी तो उसे यों ही रहने दीजिये ।
___ गधाशाह ने कई प्रकार से प्रयत्न किया पर भैंसाशाह ने उनकी एक भी बात को स्वीकार नहीं की। उन्होंने तो स्वोपार्जित कर्मों को इसी तरह भोगकर उनसे मुक्त होना ही समुचित समझा। एक गधाशाह ही नहीं पर बहुत से व्यक्ति भैंसाशाह की मेहरबानी से सम्पत्तिशाली बने थे अतः अपने कर्तव्य ऋण को अदा करने के लिये उन सबों ने उनसे प्रार्थना की व भैंसाशाह के सुसुराल वालों ने भी भिन्नमाल पधार जाने के लिये प्रयत्न किया पर भैंसाशाह ने किसी की भी नहीं सुनी।
एक समय गधाशाह भैसाशाह के मकान पर गया। समय रात्रि का था। जब भैसाशाह किसी भी तरह सहायता लेने को बाध्य न हए तब गधाशाह ने गुप्त रीति से भैंसाशाह के घर पर एक बहमल्य गहना छोड़ दिया। प्रातःकाल होते ही गहने को अपने घर में पड़ा हुआ देख भैंसाशाह के आश्चर्य का पारावार नहीं रहा । वे सोचने लगे कि यह आभूषण मेरा तो नहीं है । शायद किसी सजन पुरुष ने मेरी हालत को देखकर मेरी सहायतार्थ डाला है पर बिना अधिकार का द्रव्य मैं काम में कैसे ले सकता हूँ। बस, उन्होंने नगर भर में उद्घोषणा करवादी कि जिसका गहना हो वह ले जावे अन्यथा मैं मन्दिरजी में अर्पण कर दूंगा । गधाशाह जानते थे कि मेवर मेरा है । पर उन्होंने कुछ भी नहीं कहा । गधाशाह के सिवाय उस गहने का कोई दूसरा मालिक तो था ही नहीं तब दूसरा बोल भी कौन सकता था ? उघोषणानन्तर भी उसकी मालकियत ज्ञात न हुई तो भैंसाशाह ने अधिकार बिना के द्रव्य का उपभोग करना अनुचित समझ कर उसे मन्दिरजो में अर्पित कर दिया।
हम पूर्व लिख आये हैं कि जैन धर्म की मुख्य मान्यता निश्चय पर थी। निश्चय को आधार बना लेने वाले व्यक्ति के हृदय में चिन्ता व आर्त-ध्यान स्थान कर ही नहीं सकता है । धर्मवीर भैंसाशाह भी निश्चय पर अडिग थे और उन्होंने उत्कृष्ट परिणामों की तीव्र धारा में अपने पूर्वोपार्जित निकाचित कर्मों की इस प्रकार निर्जरा कर डाली कि अब उनके कोई अशुभ कर्मोदय अवशिष्ट रहा ही नहीं। अब तो पुण्य की प्रबलता किसी शुभ निमित्त की राह देख रही थी।
इधर परमोपकारी, लब्धिपात्र, करुणासागर आचार्यश्री कक्कसूरीश्वरजी महाराज ने भूभ्रमन करते हुए डिडवाना की ओर पदार्पण किया। जब आचार्यश्री के पदार्पण के समाचार श्रीसंध को ज्ञात हुए तो उनके हृदय में सूरीश्वरजी के पदार्पण के समाचारों से अभूत पूर्व हर्ष का सञ्चार हुआ। श्रीसंघ ने क्रमशः सूरिजी का नगर प्रवेश महोत्सव बड़े ही समारोह पूर्वक किया । गधाशाह ने सवाल व रुपये व्यय कर सूरिजी की उत्साहपूर्वक भक्ति की । पर भैंसाशाह की निर्मल अन्तःकरण पूर्वक कीगई परम श्रद्धापूर्ण भक्ति से प्राचार्यश्री बड़े प्रसन्न थे । सूरिजी ने लाभालाभ का विचार कर डिडवाने में मासकल्प पर्यन्त स्थिरता की । एक मास की सुदीर्घ अवधि में सूरीश्वरजी का शिष्य समुदाय भिक्षार्थ हमेशा नगर में जाता था पर भैसाशाह के ऐसी अन्तराय थी कि उनके वां एक दिन भी भितार्थ मुनिराजों का शुभागमन न हो सका। शाइ को इस बात का बड़ा रंक था पर वे क्या कर सकते थे ? अन्यथा कहा मासकल्प के अन्तिम दिन देवानुयोग से गौचरी के लिये स्वयं सूरिजो पधारे। भैंसाशाह ने अपने वहां आने के लिये आचार्यश्री को बहुत ही आग्रह किया तव दया करके सूरिजी भी उनके वहां गये । सुपात्र का अनुकूल संयोग मिलने पर भी भैंसाशाह के पास प्राचार्य श्री के पात्रों में डालने के लिये क्या था? केवल बाजरी के सोगरे और गवार की फली । भैसाशाह इन
घर वस्तुओं को ले तो बहत ही संकचित हए फिर भी अन्य योग्य बस्त के अभाव में उक्त नीरस वस्त को भी परमश्रल कष्ट भावना से पात्र में प्रक्षिप्त किया। यद्यपि आहार सामान्य था पर भावों
की प्रवल उत्कृष्टता ने उसने किश्चित् भी सामान्यता या न्यूनता नहीं आने दी सूरिजी भी उनकी आन्तरिक JainEdu१४१mational
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