Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० १०३३-१०७४ ]
[भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
ले लिया ! शता ने भी उसके बढ़ते दए वैराग्य को एवं जिनभद्र सुनीश्वर के वचनों को लक्ष्य में रख उसे दीसा लेने की महर्ष श्राज्ञा प्रदान कर दी । उपाध्यायजी ने भी भावी प्रभावक, तेजस्वी क्षत्रिय-कुमार को दीक्षित कर. नि पद्मप्रभ नाम रख दिया। मुनि पद्मप्रभ को सर्व गुणों का आधार व शासन की उन्नति करने का प्रधान हेतु समझ, शास्त्राभ्यास करवाना प्रारम्भ करवा दिया। नवदीक्षित मुनि ने पूर्व जन्म में ज्ञानार्चना, भक्ति, एवं ज्ञानाराधना को विशेष परिमाण में की थी। अतः वे कुछ ही समय में शास्त्रमर्मज्ञ व अने समय के अनन्य विद्वान हो गरे । वीणावाद में मस्त बनी सरस्वती की आप पर इतनी कृपा थी कि संगीत एवं वक्तृत्व कला में तो आप असाधारण पाण्डित हस्तगत कर लिया कि श्राप जिस समय व्याख्यान देना प्रारम्भ करते थे नव मानव देहधारी तो क्या पर देव देवांगमा भी स्तभित हो जाते थे। जब समय हो जाने पर माप व्याख्यान समाप्त कर देते थे तो श्रोताजन को बड़ा ही अायात पहुँचता था और वे पुनः व्याख्यान के लिये लालायित रहते थे इत्यादि । आप इस प्रकार व्याख्यान के लिये सर्वत्र प्रसिद्ध हो गये। मुनि पद्मप्रभ की योग्यता पर प्रसन्न होकर श्री उपाध्यायजी महाराज ने मुनि पद्मप्रभ को वाचक पद से विभूषीत कर उसका सम्मान किया।
एक समय आप पुनः इत उत परिभ्रमन को हुए पाटण पधारे । नित्य नियम क्रमानुसार वाचकजी के कई व्याख्यान (पब्लिक) हुए । मुनि पद्मप्रभ की प्रतिपादन शैली की अलौकिकता से आकर्षित हो जन समाज नित्य नूतनोत्साह से विशाल संग्या में व्याख्यान श्रवण का लाभ लेने लग गया। तात्विक विषयों के स्पष्टी करण की असाधारणता के कारण नगर भर में आपका सुयश ज्योत्स्ना विस्तृत होगई । अनन्तर श्री हेमचंद्रसूरि ने उस नवदीक्षित पद्मप्रभ को जनोत्तर (अति अलौकिक-सर्वश्रेष्ठ ) वाचक गुण सम्पन्न प्रखर व्याख्याता, जानकर व्याख्यान के समय (प्रातःकाल) उस पद्मप्रभ को कौतुक से बलाया। प्राचार्यश्री स्वयं प्रच्छन्न स्थान पर बैठ कर बहुत ही ध्यानपूर्वक मुनि एद्मप्रभ के व्याख्यान-विवेचन शक्ति व तत्व प्रतिपादन को श्रवण करने लगे। राजा कुमारपाल भी मुनि श्री के आश्चर्योत्पादक व्याख्यान सभा में उत्कण्ठित हो सम्मिलित हुआ । नव मुनिजी विवेचन एवं स्पष्टीकरण करने की अलौकिकता बोलने की मधुरता, श्रोताओं को चुम्बक बत् आकर्षित करने की विचित्रता ने समासीन जन समाज, राजा कुमारपाल एवं श्राचार्यश्री हेमचंद्रसूरि को भी आश्चर्य विमुग्ध बना दिया । इस व्याख्यान ने सूरिजी के हृदय में मुनि पद्मप्रभ के प्रति अगाध स्नेह पैदा कर दिया। उनकी इच्छा वाचकजी को अपने पास रखकर अपने चुग के असाधारण महाप्रभावक बनाने की होगई। अतः उक्त इप्सित अभिलाषा से प्रेरित हो उन्होंने उपाध्याय जी से वाचक मुनि पद्मप्रभ की याचना की। इसमें सूरिजी का-वाचकजी के द्वारा जैनधर्म की प्रभावना करवाने का ही परम स्तुत्य, आदरणीय ध्येय होगा पर यह बात उपा० ने स्वीकृत नहीं की। अब तो हेमचन्दसूरिजी जबरन भी उसको लेने का प्रयत्न करने लगे अतः उपाध्यायजी को बहुत ही चिन्ता हो गई। वे सोचने लगे कि यहां का राजा कुमारपाल हेगचन्द्राचार्य का भक्त है। अतः यहां पर ऐसी स्थिति में रमा भयावह है। बस. दोनों गरु शिष्य रात ही में ऐसे विषम मार्ग से विहार कर सिनपल्ली (सिनवली) नामक एकान्त व विशाल स्थान में पहुँच गये कि जहां राजाओं की सेना या गुप्तचरों से भेद लगना भी दुःसाध्य था। जब हेमचन्द्राचार्य को इस बात की खबर लगी कि उपाध्यायजी म. रात्रि में ही चले गये हैं तो उन्होंने राजा कुमारपाल को पतद्विषयक प्रेरणा की। राजा ने भी योग्य पुरुषों को उपाध्यायजी को ढूंढ़ने के लिये भेजा पर विषम मार्ग का अनुसरण करने वाले उपाध्यायजी का पता वे न लगा सके । अन्त में हताश हो वे जैसे के तैसे पुनः लौट आये ।
उपाध्यायजी व वाचक पद्मप्रभ मुनि जिस स्थान पर ठहरे थे उसके नजदीक ही एक ग्राम था। वहां की विसोई नाम की देवी किसी पात्र के शरीर में अवतीर्ण हो कहने लगी-हे भद्रपुरुषों ! तुम्हारे यहां जो कल दो श्वे० साधु पधारे हैं उनको शीघ्र ही जाकर इस बात की सूचना करो कि वाचक पद्मप्रभ मुनि को देवी ने १४२६
क्षत्री कुमार की दीक्षा और पद्मप्रभ नाम
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