Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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आचार्य कक्कसरि का जीवन ]
[ ओसवाल सं० १४७४-१५०८
भोजा-अब दीक्षा लेने के बाद तो हार का झगड़ा तो नहीं रहेगा न ?
मोहिनी-यद्यपि हार से मेरा ममत्व नहीं है पर 'किम् जातं' यह खटका तो रह ही जायगा। जैसे एक गृहस्थ ने अपनी गर्भवती स्त्री का त्याग कर किसी सन्यासी के पास दीवाली पर जब ध्यान करने बैठा तो उसके मन में रह २ कर यह विचार आने लगा कि मेरी स्त्री के लड़का हुआ या लड़की ? इन्हीं विचारों में दिन व्यतीत होने लगे पर प्रभु-ध्यान में उक्त विचारों का मन स्थिर न हो सका । इस प्रकार जब छः मास व्यतीत हो गये तब उसके गुरु ने कहा-वत्स! तेरा चित्त ध्यान में क्यों नहीं लगता है ? क्या 'किम् जातं' का रोग तो नहीं लग गया है ? शिष्य ने कहा--गुरुदेव ! मेरे हृदय से यह 'किं जातं' का रोग ही नहीं निकलता है और इसी कारण से ध्यान में भी मन स्थिर नहीं रहता है । गुरु ने कहा तो आज तुम अपने घर पर भिक्षा के लिये जाओ शिष्य गुर्वादेशानुसार भिक्षा के लिये नगर में गया तो कौतूहलवश सब से पहिले अपने घर पर गौचरी के लिये गया। वहां नवजात शिशु को बालोचित क्रीड़ा करते हुए देखा तो अपने आप 'किं जातं' का रोग मिट गया। बस, तत्काल ही भिक्षा लेकर अपने गुरु के पास आया और निर्विन्नतया ध्यान में संलग्न हो गया । उसके हृदय से पुत्र को देख कर 'किं जातं' का रोग ही मिट गया और उसे सन्तोष हो गया कि मेरी औरत के पुत्र हुआ है।
दैवयोग से उसी रात्रि को अधिष्ठायिका ने वह हार रात्रि में लाकर भोजा को दे दिया। प्रातःकाल अपनी धर्मपत्नी को हार दि वलाते हुए भोजा ने कहा-प्रिये ! यह हार रात्रि में मुझे अधिष्टायिका ने लाकर दिया है। बोलो अब इस हार के लिये क्या करना चाहिये ? सेठानी मोहिनी ने कहा-हार वापिस अधिष्ठायिक को दे दीजिये और जल्दी में ही दीक्षा की तैय्यारी कीजिये। अब एक क्षण का विलम्ब भी असह्य है । पत्नी के उक्त वचनों के बल पर ओजाने अधिष्ठायिक की आराधना को और अधिष्ठायिक को उक्त हार सौंप दिया। अधिष्ठायिक ते भी ऐसा प्रबन्ध कर दिया कि श्रीसंघ के दर्शनों के समय तो हार प्रभु के कण्ठ में दृश्यमान होता और पश्चात् अदृश्य हो जाता । यह एक दिन के लिये नहीं पर हमेशा का ही क्रम था।
इधर शाह भोजा और आपकी पत्नी दीक्षा लेने को बिल्कुल तैयार होगये । नगर भर में यह दीर्घ उद्घोषणा करवादी कि जिस किसी को भी किसी भी प्रकार की आवश्यकता हो-मैं तन, मन, धन से उसकी सहायता सेवा करने को तैयार हूँ । जो कोई चाहे दीक्षा ले; चाहे आचार्यश्री की सेवा में रह कर आत्म कल्याण करे। इस पर ३४ नर नारी दीक्षा लेने के लिये तैयार होगये । वि० सं० १०५५ वैशाख शुक्ला तृतीया के शुभ दिन शाह मोजा के किये हुए महामहोत्सव के साथ सूरिजी ने उन मोक्षाभिलाषी ३६ स्त्री पुरुषों को भगवती दीक्षा दकर निवृत्ति पथ का पथिक बनवाया। शाह भोजा का नाम भुवनकलश रख दिया।
भूवनकलश की वय ४१ वर्षकी थी पर सूरिजो की उदार कृपा और भवनकलश मुनि के अनुपम उत्साह से आप थोड़े ही समय में वर्तमान साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित बन गये। उस समय की यह एक विशिष्ट विशेषता थी कि कोई भी मुनि कितना ही विद्वान क्यों न हो जावे; वह गुरुकुल वास से अलग रहना नहीं चाहता था। जो गुण, योग्यता और गौरव गुरुकुल वास से प्राप्त होता है वह अलग रहने में नहीं। मुनि भुवनकलश ने लगातार १६ वर्ष गुरुकुल वास में रह कर सर्व प्रकार से योग्यता हस्तगत करली थी। आचार्यश्री सिद्धसूरि ने भी वि० सं० १०७४ के माघ शुक्ला पूर्णिमा के दिन, श्रेष्टि पद्मा के महामहोत्सव पूर्वक मुनि भुवनकलश को सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम कक्कसूरि रख दिया।
आचार्यश्री ककसूरिजी म० परमप्रभावक, जैन धर्म के जगमगाते सितारे थे। वादियों पर तो आपकी इतनी धाक जमी हुई थी कि आपका नाम सुनते ही ये दूर दूर भागते थे। आचार्यश्री ने जिस दिन सूरिपद का भार अपने कन्धे पर लिया था उसी दिन छट छट पारणा तथा पारणे में केवल एक ही विगय लेने की
करती थी। इस प्रकार शुद्ध निर्मल और कठोर तपस्या के कारण आपको कई अपूर्व २
मुनि भुवनकलश का सूरिपद
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